Saturday 11 March 2017

”आओ नए कलाम लिखें”


जैसे देश के एक कोने के कलाम देश का इतिहास बदल सकते हैं तो जरा सोचिए यदि हम शिक्षक देश के कोने-कोने में कलाम बना दे तो देश फिर से विश्वगुरू हो जाएगा...

”आओ नए कलाम लिखें”

आओ नए कलाम लिखें, कुछ जिद लिखें कुछ जूनून लिखें,
मालवा का सुर्ख सवेरा, निमाड की गोधुली शाम लिखें।
कुछ भूगोल कुछ खगोल कुछ विज्ञान का ज्ञान लिखें,
दे जाएं जो दुनिया को ताकत, कुछ ऐसे इंसान लिखें।

कैसे हो भविष्य के कलाम -
प्रखरता आदित्य जैसी, घोर तिमिर में भोर लिखें,
जिएं तो सबक के लिए, जाएं तो प्रणाम लिखें,
सच्चाई की नई ईबादत और अग्नि की नई उडान लिखें।
आओ नए कलाम लिखें, कुछ जिद...

सदभावना के लिए-
तुम गंगाजल भर कर लाओ, आबेजमजम मैं देता हूं,
दोनों को मिला कर फिर से नया इंकलाब लिखें,
मंदिर का घडियाल बदल दें, मस्जिद की नई अजान लिखें।
दे जाए भारत को ताकत कुछ ऐसे इंसान लिखें

देश की अखंडता के नाम-
तुम कश्मीर की स्याही लाओ, कलम तमिल की मैं देता हूं,
अरुणाचल से थार-कच्छ तक, भारत का नया स्वाभिमान लिखें,
याद आए जो युगों—युगों तक ऐसे कुछ इंसान लिखें।
आओ नए कलाम लिखें, कुछ जिद...

...और अंत में एक निवेदन-
गांव से, शहर से,
गली से, नुक्कड से,
स्कूल से या काॅलेज से 
प्रतिभाओं को निखार कर उनका उत्थान करें,
आओ साथियों फिर से नए कलाम लिखे
कुछ जिद कुछ जुनून कुछ जलाल लिखे...
जय हिन्द
                                                                                                         सचिन... 9826091791



शिक्षा गुणवत्ता

उम्र भर गालिब यही भूल करता रहा
धूल तो मेरे चेहरे पर थी, और मैं आईना साफ करता रहा
मिर्जा गालिब की यही बात वर्तमान में ’शिक्षा गुणवत्ता पर भी सार्थक सिद्ध हो रही है। पढने-पढाने के क्षेत्र में हर कोई एक दूसरे की धूल झाड़ने में लगा है... शिक्षक अफसरों की, अफसर शिक्षक-कर्मचारियों की और पालक पूरे सिस्टम की... खैर, चलिए बात करते हैं शिक्षा गुणवत्ता की...

आज भी ‘शिक्षा और रक्षा‘ उतने ही दोनों ही मुद्दे उतने ही चुनौतीपूर्ण है जितने आजादी के पहले थे। यदि रक्षा संबंधित किसी कार्ययोजना या माड्यूल में त्रुटी हो तो थोडे प्रयास से इसे सुधारा जा सकता है लेकिन शिक्षा की कार्ययोजना या माड्यूल में किसी भी स्तर पर हुई छोटी से छोटी त्रुटी या कमी का खामियाजा पूरी एक पीढी को भुगतना पडता है। कई मन, मस्तिष्क और दिमाग बेकार हो जाते हैं जब शिक्षा व्यवस्था में थोडी सी चुक होती है। 

एन.सी.एफ. 2005 की प्रस्तावना में प्रो यशपाल पाल की लिखी शुरूआती पंक्तियां आज भी सार्थक है जो ये बताती है कि ये बात सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण है कि हमारे बच्चों को क्या और कैसे पढाया जाए? तो इसका बस यही जवाब मिलता है कि आने वाली नस्ल को मन, मस्तिष्क और दिमाग का ऐसा इस्तेमाल करना सीखाया जाए जो स्वयं के, समाज के और देशहित में सिद्ध हो। जिसमें जातिगत बंटवारे का भाव न हो। जो प्रकृति संरक्षण को अपना कर्तव्य माने, जो हमारी सांस्कृतिक विरासतों को संजो सके। जिस दिन भावी नागरिक का मन, मस्तिष्क और दिमाग सही दिशा में कार्य करेंगे तो समझ लिजिए आ गई शिक्षा में गुणवत्ता। 

वर्तमान में हमारा देश भले ही पोलियो मुक्त हो गया है लेकिन हमारी शिक्षा व्यवस्था आज भी पोलियोग्रस्त ही है। यदि शिक्षा संस्थानों की बात की जाए अच्छी शिक्षा के नाम पर आज हमारे पास क्या है ? एम्स, आईआईटी, एनआईआईटी, आरटीसी, सीटीई, एनसीआरटी आदि ऊंगलियों पर गिनाए जाने वाले संस्थान? वहीं यदि प्रदेश स्तर पर मलाईदार विभागों की फेहरिस्त तैयार की जाए तो शिक्षा विभाग या शिक्षा से जुडे सभी विभाग ऊपर की ओर दिखाई देंगे। मानो शिक्षा माननीयों और सफेदपोशों की व्यक्तिगत राजस्व बटोरने का साधन हो गई है। संसाधनों की बंदरबांट और शैक्षिक ह्रास में हम व्यापम जैसे घोटाले को अंजाम देने से भी नहीं चुके।

विभिन्न संचार माध्यमों से चैंकाने वाली बातें -

- जैसे, देश में प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता के संदर्भ में एनुअल स्टेटस आॅफ एजुकेशन ने विगत वर्षों में एक रिपोर्ट तैयार की। इसके मुताबिक देश की कक्षा पांच के आधे से अधिक बच्चे कक्षा दो की किताब भी ठीक से नहीं पढ सकते।

- गत वर्षों में जारी 'राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संस्थान’ (एनएसएसओ) की रिपोर्ट के अनुसार इस वक्त देश में निजी ट्यूशन ले रहे विद्यार्थियों की कुल संख्या करीब 7.1 करोड़ है, जो कुल विद्यार्थियों की संख्या का 26 फीसदी है। हालांकि यह सिर्फ सीमित संसाधनों का प्रयोग कर जुटाया गया आंकड़ा है, इसलिए विद्यार्थियों की यह संख्या और भी अधिक होने की संभावना है।  

- वर्तमान में हमारे प्रदेश में प्राथमिक माध्यमिक स्तर पर करीब एक लाख से अधिक शिक्षकों की आवश्यकता है। जबकि विभिन्न प्रदेशों को मिलाकर राष्ट्रीय स्तर पर ये आंकडा दस गुना से ज्यादा हो जाता है।
- प्रदेश की करीब एक चैथाई से शालाओं में विद्यार्थियों को समग्र छात्रवृत्ति योजना के तहत पिछले शैक्षिक सत्र की छात्रवृत्तियां लेने के लिए बहुत जिद्दोजहद करनी पड रही है, क्योंकि इसमें विभिन्न विभागों का समन्वय नही हो पा रहा है। 

- हाल ही में आयोजित ‘‘मिल बांचे मध्यप्रदेश‘‘ कार्यक्रम में अशासकीय लोगों की भागीदारी बहुत कम रही। वहीं कई विभागों के अफसर व कर्मचारियों ने इसे जबरदस्ती का सौदा समझ कर सिर्फ खानापूर्ति कर ली। यहां तक की हमारे माननीयों ने अपने स्कूली—कॉलेज अनुभव सुनाने की बजाए शिक्षकों की क्लास भी ले ली। मीडिया माध्यमों के अनुसार खानापूर्ति करने वालों की संख्या 50 फीसदी से अधिक होने की संभावनाएं है।

- कई योजनाओं का क्रियान्वयन होने के बाद भी हमारी प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में से सूचना और प्रोद्योगिकी और कौशल विकास का आभाव स्पष्ट है। प्रदेश स्तर पर तो इसमें हालत और भी खराब है।
 
वहीं यदि बात की जाए बजट की तो...
इस सत्र के आम बजट में शिक्षा क्षेत्र के लिए करीब 79.68 हजार करोड़ रूपए का आवंटन किया गया। इसमें से स्कूली शिक्षा प्राथमिक और सीनियर सेकेंडरी) के लिए  करीब 46.35 हजार करोड़ रुपए और शेष उच्च शिक्षा के लिए आवंटित किया गया है। लेकिन विकसित देशों के मुकाबले जिनकी हम बराबरी करने की बात करते हैं,ये फंडिंग बहुत कम है। जबकि हमारी अर्थव्यवस्था दुनिया की तीसरी सबसे बडी अर्थव्यवस्था मानी जाती है।
इनसे परे बात की जाए सुधार की तो तीन पहलू हैं - विद्यार्थी, पालक और शिक्षक लेकिन अघोषित रूप् से इनके दायरे इतने संकुचित हैं कि ये पंक्तियां सार्थक सिद्ध होती हैं-
‘बंद कमरे में मेरी सांसे घुट जाती हैं। अगर खिडकी खोलता हूं तो जहरीली हवा आती है।‘
शिक्षा प्रणाली का मूल आधार माने जाने वाले ये तीनों तत्वों को अपने अपने स्तर पर सुधार करना होगा। तीनों तत्वों को अपने विकसित दायरे का भान करवाना होगा। पालक को पोषण, नैतिकता, पर्यावरण संरक्षण, परिवार, समाज में रहनसहन की जिम्मेदारी कानूनी स्तर पर सौंपनी होगी। वहीं शिक्षक को पाठ्यक्रम से परे अध्यापन की आजादी भी होनी चाहिए।  

शिक्षा गुणवत्ता में विभिन्न कमियों को देखते हुए कुछ सुझाव भी सामने आए हैं...

- हमारे देश में अभिरूचि के अनुसार उच्च शिक्षा संस्थान तों वहीं अभिरुचि के नाम पर स्पोट्र्स होस्टल भी हैं। लेकिन कोई भी अभिरुचि का माध्यमिक विद्यालय नहीं है। अब हमारे यहां शिक्षक पर पूर्व प्राथमिक कक्षाओं में विद्यार्थी की अभिरूचि की पहचान की जिम्मेदारी भी सौंपनी होगी। अभिरुचि आधारित इन विद्यालयों में माध्यमिक कक्षाओं में विद्यार्थी की अभिरुचि के अनुसार दक्षता प्रदान करनी होगी। क्योंकि इंसानी बुद्धि सिर्फ रटकर प्रथम अंकों से उत्तीर्ण होने तक सीमित नहीं है। विद्यार्थियों को इस बात का अवबोध कराना होगा कि हमारी बुद्धि हमारी सम्पत्ति है, इसे सही दिशा में खर्च करना होगा।

- जैसे लोकतंत्र के मूलभूत तीन आधार स्तंभ हैं विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। वहीं मीडिया को चैथा स्तंभ माना गया है। ऐसे ही शिक्षातंत्र को लोकतंत्र का पांचवा स्तंभ बनाना होगा। क्यों की वर्तमान की शिक्षा ही देश का भविष्य तय करती हैै। 

- हमारे शासकीय विद्यालय बाल शिक्षण (6-14 आयु वर्ग के बच्चों) के लिए कार्य कर रहे हैं। जबकि शिशु शिक्षण के लिए संचालित आंगनवाड़ी और प्रौढ़ शिक्षा के लिए कार्यरत सतत् शिक्षा केन्द्रों का सम्बंध विद्यालय से कहने भर को है। वास्तव में इन सभी के बीच बेहतर तालमेल जरूरी है। यदि इन तीनों एजेंसियों को एकीकृत कर दिया जाए तो 3 से 50 वर्ष तक के लिए शिक्षण की बेहतर व्यवस्था सम्भव है।

- वर्तमान में विद्यार्थियों के संदर्भ में कहा जाता है- तालिम भी अजब सा नशा है, किताबें खोलते ही नींद आ जाती है। इसलिए शिक्षा के ऊबाऊपन और बस्ते को बोझ को कम करना भी आव’यक है। 

- इतिहास गवाह है कि अब तक कोई भी संघ या सस्था ने शिक्षा की गुणवत्ता के लिए किसी प्रकार का आंदोलन नहीं किया है। सारे आंदोलन व हडतालें वेतन, पदोन्नति, संविलियन की भेंट चढ गए हैं। इसका प्रत्यक्ष फायदा शिक्षक की जेब पर हुआ है और हमारे शिक्षक ‘माट्साब‘ हो गए हैं। ऐसे में शासन की उम्मीद और कार्य का भार बढना स्वाभाविक है। प्राथमिक और पूर्व माध्यमिक स्तर के शिक्षक जो शिक्षा की बुनियाद रखने में महत्ती भूमिका निभाते हैं उनपर अध्यापन के आलावा कई काम थोंप दिए गए हैं। वे डाकिया हैं, बीएलओ हैं, सर्वेयर हैं, प्रेरक हैं, बैंककर्मी हैं, यहां तक की स्वास्थ्य और सफाई कर्मचारी भी हैं। शिक्षकों को इन कार्यों से दूर कर अध्यापन की मुख्यधारा से जोडना सार्थक पहल होगी। 

— शिक्षकों की व्यवसायिक और नैतिक गुणवत्ता पर भी कार्य करने की आवश्यकता है। इसके लिए किसी हारी हुई टीम को रिकवर करने का उदाहरण बढिया है। जैसे किसी हारी हुई टीम के खिलाडियों को मानसिक तौर पर रिकवर करने के लिए किसी विशेष प्रकार के मनोचिकित्सक की स्पीच की जरूरत होती है वैसे ही हमारे शिक्षक भी 'सिस्टम गेम' से हार गए हैं, इन्हें भी माइंडवॉश की जरूरत है। इसके लिए प्रशिक्षण भी दिया जा सकता है। 

- यह अत्यंत आवश्यक है कि समग्र शिक्षा व्यवस्था को नियंत्रित किए जाने हेतु राज्य की विशेष शिक्षा नीति तैयार की जानी चाहिए। जैसे बच्चों को शिक्षा का अधिकार है वैसे ही शिक्षकों को स्वतंत्र शिक्षण का अधिकार दिया जाए। इसके लिए प्रायवेट सेक्टर की भांति शिक्षकों को निर्धारित समय में निर्धारित ज्ञान को सीखाने का और क्षमता विकास का टारगेट दे दिया जा सकता है। इसके लिए मूल्यांकन प्रणाली में भी आवश्यक सुधार करने होंगे। गौरतलब है कि वर्तमान में मूल्यांकन का मुख्य आधार लेखन कौशल है। 

- विभिन्न सर्वे के अनुसार देश में में हर 18 से 20 किमी में संस्कृति और परिवेश में बदलाव देखा जा सकता है। इसलिए जिला या संभाग स्तर पर पाठ्यक्रम निर्माण की व्यवस्था हो। शिक्षण विधियों में परिवर्तन करने का अधिकार शिक्षकों व शिक्षाविदों को हो, प्रशासनिक अधिकारियों को नहीं। 

गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का मतलब हर बच्चे की हर क्षमता का हर तरह से विकास होना है। भले वह कक्षा या स्कूल जाए या ना जाए। शिक्षक को यह बात भी ध्यान रखनी होगी कि वह सिर्फ बच्चों को नहीं पढा रहा है बल्कि वह भविष्य के महात्मा गांधी, अब्दुल कलाम, टैगोर, विवेकानंद, भविष्य के ध्यानसिंह, तेन्दुलकर, मिल्खासिंह आदि का निर्माण कर रहा है। वह उस समाज की आधारशीला रख रहा है जो भारत का भविष्य तय करेगा।
 
अब तक जो चल रहा था बीत गया लेकिन अब कुछ यूं करना होगा-
कुछ ऐसी तालीम बना दे मेरे मौला
किताब की बात किरदार में नजर आए...
                                                                                                                           सचिन.. 09826091791

Friday 12 August 2011

अलबेली है बारीश

देखो कैसी अलबेली है बारीश,
भीगाकर खत्म करती आंसुओं की साजिश।
 धो दी इसने जमीं कुछ ऐसी,
खुशीयां गम धो देती जैसी।

बूंदे जो मंदिर पर गिरती, मस्जिद पर गिरती
जैसे गंगा—आबेजमजम की फितरत परस्ति।
राम वालों सीखों, रहीम वालों सीखों
कैसे हरा और भगवा एक करती।

देखो खुश है धरती का लाल
उम्मीद है टुटेगा गरीबी का मलाल
अब दीवाली नहीं होगी सुनी
ईदी भी होगी अब दुनी।

Saturday 30 July 2011

क्यों पकड़ में नहीं बाजार?

आज सभी को 'महंगाई' के चार अक्षर किसी बवाल से कम नहीं लग रहे हैं। वैसे, इस साल के बजट से काफी उम्मीद की जा रही थी कि महंगाई से कुछ हद तक राहत मिलेगी, लेकिन हालिया बढ़ी अनाजों, रसोई गैस और अब ब्याज की दरों को देखकर लगता है कि महंगाई इतनी आसानी से हमारा पीछा नहीं छोडऩे वाली। यह लेख भी  महंगाई के कुछ ऐसे समीकरणों को प्रस्तुत करता है, जो आम आदमी की जिंदगी को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित कर रहे हैं।


भले ही मीडिया कितनी भी जागरूकता लाने का प्रयास करे, लेकिन महंगाई की मार से परेशान आम आदमी की मुश्किलें कम होने का नाम ही नहीं ले रही है। सरकार के महंगाई को थामने के लिए उठाए जा रहे कदम भी फिलहाल कारगर नजर होते नहीं दिखाई दे रहे हैं। चाहे दूध, सब्जियां हो या फिर अनाज जैसी रोजमर्रा की जरूरी वस्तुएं, सभी के लगातार बढ़ते कीमतो ने आम आदमी का जीना मुहाल कर दिया है। वैसे, शेयर बाजार की अस्थिरता के साथ अब ब्याज की मार भी हमारी जिंदगी को प्रभावित करती नजर आएगी। पिछले साल दिसम्बर में जहां बेमौसम बारिश की वजह से देश में प्याज की कीमतें बढ़कर 80 रुपए प्रति किलो तक पहुंंच गई थी और हाल ही में रसोई गैस पर 50 रुपए की बढ़ोतरी से तो हम भलीभांति परिचित हैं। दोनों ही पहलू इस बात को स्पष्ट करते है कि लंबे समय से महंगाई का भूत केंद्र सरकार की नीतियों पर भारी पड़ रहा है।


महंगाई का समीकरण-
महंगाई के समीकरण को एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। मान लो कि पुराने समय में एक बकरी 20 किलो गेहूं के बदले खरीदी जाती थी। मतलब 20 किलो गेहूं की कीमत एक बकरी है। धीरे-धीरे इस लेन-देन के लिए पैसा या मुद्रा आ गई। अब मान लो कि एक बकरी 1000 रुपए में खरीदी गई। इसका मतलब आज एक बकरी की कीमत हजार रुपए है और हजार रुपए का मूल्य एक बकरी के बराबर है। अब अगर यह माने कि बकरी की कीमत बढ़ गई और 1500 रुपए हो गई। इसके मायने यह नहीं है कि बकरी का मूल्य बढ़ गया, बल्कि यह है कि रुपए का मूल्य घट गया। अब हजार रुपए का मूल्य एक बकरी के बराबर नहीं रहा, बल्कि डेढ़ हजार रुपए का मूल्य एक बकरी के बराबर हो गया। यानी एक रुपए से अब पहले के मुकाबले कम सामान आता है। इसे रुपए का 'अवमूल्यनÓ कहते हैं, जब चीजें महंगी होती हैं तो लोग क्यों परेशान होते हैं? क्योंकि उनके पास खर्चने को रुपए सीमित ही होते हैं या थोड़े ही बढ़ते हैं, लेकिन उन रुपए से खरीदी जाने वाली चीजें कम हो जाती हैं।

क्यों बढ़ती हैं कीमतें -
कोई सरकार अगर ज्यादा नोट छापती है और बाजार में नोट बढ़ जाते हैं, लेकिन चीजें व उत्पादन उतना का उतना ही रहता है, तो जाहिर है कि देश में नोटों का मूल्य घट जाएगा। मान लो बाजार में कोई चीज उपलब्ध ही कम है, तो मांग के कारण वह चीज महंगी हो जाएगी। जब दूध का उत्पादन घट जाता है, तो दूध महंगा हो जाता है। दूसरा अगर किसी चीज के उत्पादन की लागत बढ़ जाए तो वह महंगी हो जाती है। पेट्रोल या डीजल के दाम बढ़ेंगे तो बसों और ट्रेनों के किराए भी स्वाभाविक रूप से बढ़ जाएंगे।

    कीमतों के तय होने का एक बड़ा कारण देश और समाज की व्यवस्था भी है। कोई चीज कम है तो पहले किसको मिलेगी, इसके अलग-अलग नियम है। तानाशाही व्यवस्था में ज्यादा ताकतवर लोगों को चीजें पहले मिलती हैं। जहां व्यवस्था सामाजिक कल्याण की भावना पर हो, वहां उसे दी जाएगी जिसे सबसे ज्यादा जरूरत हो। जैसे अगर अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी है, तो सबसे पहले उस मरीज को दी जाएगी, जिसकी हालत सबसे ज्यादा खराब है। इसी तरह आज की व्यवस्था भी मुक्त बाजार व्यवस्था है। इसमें चीजें उनको ही मिलेंगी, जिनके पास पैसा देने की ताकत है। इस व्यवस्था में जरूरतें पूरी करने के लिए इन्सानियत की कोई जगह नहीं। एक इंसान अगर मर भी रहा है तो भी डॉक्टरी सेवा या दवाई उसे ही मिलेगी, जो ज्यादा फीस दे सकता है।

खाद्य पदार्थ की चिंता-हाल ही में 16 जुलाई को समाप्त सप्ताह में दालों के दाम घटने से खाद्य मुद्रास्फीति घटकर 20 माह के निचले स्तर 7.33 प्रतिशत पर आ गई, लेकिन इसके बावजूद परिवारों के बजट पर आलू, प्याज, फलों और दूध के ऊंचे दामों की मार कम नहीं हुई है। थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) पर आधारित खाद्य मुद्रास्फीति इससे पूर्व सप्ताह में 7.58 प्रतिशत थी। गिरावट का कारण पिछले साल इसी अवधि के दौरान मुद्रास्फीति का ऊंचा होना (उच्च आधार प्रभाव) भी है। उस समय खाद्य मुद्रास्फीति 18.56 प्रतिशत थी। इस पर वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने कहा था, 'ये साप्ताहिक आंकड़े आधार, प्रभाव की वजह से ऊपर नीचे होते हैं। इनसे किसी निश्चित रुख का पता नहीं चलता। मुद्रास्फीतिक दबाव बना हुआ है।Ó जून में कुल मुद्रास्फीति 9.44 प्रतिशत के स्तर पर थी। दिसंबर, 2010 से यह 9 प्रतिशत से ऊपर चल रही है। भले ही समीक्षाधीन सप्ताह के दौरान दालों की कीमत एक साल पहले की तुलना में 8 प्रतिशत नीचे रही, लेकिन अन्य क्षैत्रों में महंगाई बनी हुई है।
   
    कुछ समय पहले के आंकड़ों के अनुसार सालाना आधार पर प्याज 22.66 प्रतिशत और फल 13.90 महंगा था। वहीं आलू 10.55 प्रतिशत, दूध 9.96 प्रतिशत और सब्जियां सालाना आधार पर 7.59 प्रतिशत महंगी थीं। सालाना आधार पर कुल मिलाकर सब्जियों के दाम 7.59 प्रतिशत बढ़े हैं। बता दें कि खाद्य मुद्रास्फीति के लिए नवंबर 2009 से अलग से आंकड़ा जारी किया जा रहा है। उसके बाद से खाद्य मुद्रास्फीति का न्यूनतम आंकड़ा है। प्राथमिक वस्तुओं पर दबाव बना हुआ है। 16 जुलाई को समाप्त सप्ताह में इनकी मुद्रास्फीति 10.49 प्रतिशत थी, जो इससे पिछले सप्ताह 11.13 फीसद थी।  इसी तरह गैर खाद्य वस्तुओं फाइबर, तिलहन और धातुओं की महंगाई दर 16.05 प्रतिशत थी, जो इससे पिछले सप्ताह 15.50 फीसदी पर थी। इस बीच, ईंधन और बिजली सूचकांक 12.12 प्रतिशत पर था। भोपाल की नवनियुक्त कराधान सहायक नीलम गुप्ता का  मानना है कि खाद्य मुद्रास्फीति में गिरावट की मुख्य वजह पिछले साल का प्रभाव है, लेकिन आगामी माह में यह रुख उलट सकता है। साथ ही वह सब्जियों, फलों और प्रोटीन वाले खाद्य पदार्थों के दाम बढऩे पर भी चिंता भी जताती हैं।

उपभोक्ताओं पर ब्याज दरों की मार- 
 हाल ही में भारतीय रिजर्व बैंक ने महत्वपूर्ण ब्याज दरों में उम्मीद से ज्यादा 0.50 प्रतिशत की वृद्धि कर दी है। इससे मकान, दुकान, कार और कॉरपोरेट लोन और महंगा हो सकता है। यानी इसकी सीधी मार बैंकों को नहीं, बल्कि उपभोक्ताओं पर पड़ेगी। पिछले 3 माह में आरबीआई ने तीसरी बार दरों में वृद्धि की है। गौरतलब है कि मार्च 2010 लेकर अब तक यह 11वीं बढ़ोतरी है। आरबीआई ने अपनी मौद्रिक नीति की तिमाही समीक्षा में चालू वित्त वर्ष के अंत की महंगाई दर के अपने अनुमान को भी 6 से बढ़ाकर 7 प्रतिशत कर दिया है। हालांकि, रिजर्व बैंक ने आर्थिक वृद्धि दर के 8 प्रतिशत के अनुमान में बदलाव नहीं किया है। इस आधा प्रतिशत की वृद्धि के बाद केंद्रीय बैंक द्वारा वाणिज्यिक बैंकों को नकदी की फौरी जरूरत के लिए दिए जाने वाले रेपो रेट 7.50 प्रतिशत से बढ़कर 8 प्रतिशत हो गया है। केंद्रीय बैंक द्वारा वाणिज्यिक बैंकों से ली जाने वाली उधारी के रेट यानी रिवर्स रेपो रेट भी 6.50 प्रतिशत से बढ़कर 7 प्रतिशत हो गया है। नकद आरक्षित अनुपात यानी सीआरआर को 6 प्रतिशत पर कायम रखा है। इन दरों में वृद्धि के बाद ऑटो, होम, पर्सनल और सभी तरह के लोन महंगे होने की पूरी उम्मीद है। यानी स्पष्ट है कि बढ़ती महंगाई के बीच यदि आप नया मकान खरीदने की सोच रहे हैं, तो भारी ब्याज देने के लिए तैयार हो जाएं। यही नहीं वाहन खरीदना व पर्सनल लोन लेना भी फिलहाल महंगा हो गया है। इन दरों के नीचे जाने की उम्मीदें फिलहाल अगले कुछ महीनों तक नहीं दिख रही है।

क्या है रेपो रेट- रिजर्व बैंक अन्य बैंकों को जिस दर से पैसा उधार देता है, उसे रेपो रेट कहते हैं। जब कभी बैंकों को फंड की कमी पड़ती है तो वो रिजर्व बैंक से कर्ज लेता है। रेपो रेट में बढ़ोतरी का मतलब बैंकों को रिजर्व बैंक से मिलने वाला कर्ज महंगा हो जाता है।

क्या है रिवर्स रेपो रेट- रिवर्स रेपो वह रेट है, जिस पर कोई भी कमर्शियल बैंक रिजर्व बैंक को पैसा उधार देते हैं। बैंक रिजर्व बैंक में अपना पैसा लगाना पसंद करते हैं, क्योंकि इससे उनका पैसा एक अच्छे ब्याज दर पर सुरक्षित हाथों में जमा होता है। अगर रिवर्स रेपो रेट में बढ़ोतरी की जाती है तो इससे बैंकों को ज्यादा पैसा रिजर्व बैंक में जमा करना पड़ता है।
 

इस कमरतोड़ महंगाई के बाद भी हाल ही में कई चीजों के दामों में बढ़ोतरी हुई है-
1. पिछले महीने रसोई गैस पर 50 रुपए बढ़ाए गए।
2. दूध की कीमत में दो रुपए प्रति लीटर की बढ़ोतरी की गई।
3. इस साल पेट्रोल के दाम 7 रुपए प्रति लीटर बढ़ गए हैं।
4. आरबीआई ने क्रेडिट पॉलिसी में ब्याज दरें आधी फीसदी बढ़ा दी यानी आम आदमी पर कर्ज का बोझ बढ़ाने का एक और इंतजाम।
 

नहीं मिलेगी दिसंबर तक राहत-
आम आदमी को कम से कम पांच माह तक महंगाई से राहत मिलने की उम्मीद नहीं है। सरकार ने कहा कि महंगाई की दर दिसंबर तक 9 प्रतिशत के ऊंचे स्तर पर बनी रहेगी। फिलहाल मुद्रास्फीति 9 प्रतिशत से ऊपर चल रही है। हाल ही में वित्त मंत्रालय के एक नोट में कहा गया है, 'इस साल के अंतिम महीने में ही महंगाई का आंकड़ा नीचे आने की उम्मीद है। अगस्त-दिसंबर, 2011 के दौरान महंगाई की दर कमोबेश उच्च स्तर पर बनी रहेगी।Ó जून माह में मुद्रास्फीति 9.44 प्रतिशत के स्तर पर थी, यह भारतीय रिजर्व बैंक के 5-6 प्रतिशत के संतोषजनक स्तर से कहीं ऊंची है। नोट में बताया गया कि वर्तमान में महंगाई की वजह मौसमी प्रभाव तथा कच्चे तेल और विनिर्मित उत्पादों के दामों में तेजी है। सरकार ने कहा है कि वह भारतीय रिजर्व बैंक के साथ मिलकर महंगाई को संतोषजनक स्तर पर लाने के लिए काम कर रही है। महंगाई के बोझ को झेलने के बारे में कोई परिभाषा नहीं है, हम निकट भविष्य में महंगाई की दर को 6 से 6.5 प्रतिशत के स्तर पर लाना चाहते हैं। भारतीय रिजर्व बैंक महंगाई पर अंकुश के लिए नीतिगत दरों में मार्च, 2010 के बाद से दस बार बढ़ोतरी कर चुका है। नोट में उल्लेख है कि वित्त मंत्रालय को उम्मीद है कि मार्च, 2012 तक महंगाई की दर घटकर 6 से 7 प्रतिशत के दायरे में आ जाएगी। अर्थव्यवस्था में जरूरत से ज्यादा तेजी के बारे में वित्त मंत्रालय के नोट में कहा गया है, 'हम राजकोषीय और मौद्रिक दोनों मोर्चों पर रुख कड़ा कर रहे हैं। इससे मांग पक्ष का दबाव दूर होगा।Ó इसमें कहा गया है कि आपूर्ति पक्ष के दबाव को कम करने से मुद्रास्फीतिक दबाव भी कम होगा। वित्त मंत्रालय ने हाल में डीजल, केरोसिन और एलपीजी के दामों में बढ़ोतरी को उचित ठहराते हुए कहा है कि यदि ऐसा नहीं किया जाता, तो इससे राजकोषीय घाटा और बढ़ता जिससे महंगाई की दर में इजाफा होता। भारतीय रिजर्व बैंक ने 2011-12 की अपनी मौद्रिक नीति की समीक्षा में कहा था कि महंगाई की दर चालू वित्त वर्ष की पहली छमाही में औसतन 9 प्रतिशत पर रहेगी और मार्च, 2012 तक घटकर 6 प्रतिशत पर आ जाएगी। वित्त मंत्रालय ने आगे कहा कि महंगाई के कारण में भी बदलाव आया है। पहले खाद्य मुद्रास्फीति चिंता की वजह थी। अब यह गैर खाद्य वस्तुओं की वजह से है।

भारत दुनिया का 5वां सबसे कर्जदार देश-
विश्व बैंक के ग्लोबल डेवलपमेंट फिनांस 2010 रिपोर्ट में 20 कर्जदार देशों के आंकड़ों के आधार पर भारत को दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा कर्जदार देश बताया गया है। कुछ समय पहले लोकसभा में शिव कुमार उदासी के प्रश्न के लिखित उत्तर में वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने बताया कि विश्व बैंक के ग्लोबल डेवलपमेंट फिनांस 2010 रिपोर्ट में बाह्य कर्ज के मामले में भारत को दुनिया का पांचवां सबसे कर्जदार देश बताया गया है। गौरतलब है कि इस सूची में पहले स्थान पर रूस उसके बाद चीन, तुर्की और ब्राजील हैं। उन्होंने कहा था कि सितंबर 2010 को समाप्त तिमाही में भारत का बाह्य कर्ज 1,332,195 करोड़ रुपए था, जबकि इससे पूर्व मार्च 2010 को समाप्त तिमाही में बाह्य कर्ज 1,184,998 करोड़ रुपए था।

मोदी बने आदर्श-
 कुछ समय पहले खबरें जोरों पर थी कि दिल्ली महंगाई रोकने के लिए गठित मुख्यमंत्रियों की समिति की सिफारिशों पर केंद्र भले ही अभी विचार कर रहा हो पर गुजरात सरकार ने उसे लागू कर दिया है। गुजरात, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडु के मुख्यमंत्रियों की इस समिति के अध्यक्ष स्वयं नरेंद्र मोदी ही रहे हैं। गौरतलब है कि खाद्य पदार्थों की महंगाई से चिंतित प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उपभोक्ता मामले से संबंधित इस समिति का गठन 12 अप्रैल 2010 को किया गया था। समिति ने रिपोर्ट को जनवरी 2011 में अंतिम रूप दे दिया था, पर प्रधानमंत्री को दो मार्च को सौंपी गई। वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने बजट सत्र के दौरान लोकसभा में महंगाई पर विपक्ष की ओर से दागे गए आरोपों का जवाब देते हुए मोदी की रिपोर्ट की चर्चा की थी। प्रणब मुखर्जी ने तब कहा था कि सरकार मोदी समिति की सिफारिशों का अध्ययन कर रही है, जिसे बाद में लागू करने पर विचार किया जाएगा। सूत्रों के अनुसार गुजरात में रिपोर्ट की सिफारिशों को प्रधानमंत्री को सौंपने के तुरंत बाद ही लागू करने का काम शुरू कर दिया गया था। रिपोर्ट में दी गई कुछ सिफारिशों को केंद्र द्वारा ही लागू किया जा सकता है। गुजरात सरकार ने इन सिफारिशों को छोड़ कर दूसरी सभी सिफारिशों पर अमल शुरू कर दिया है। इनमें एपीएमसी एक्ट में संशोधन, भंडारण क्षमता में बढ़ोतरी और सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार जैसे महत्वपूर्ण प्रयास शामिल हैं। गौरतलब है कि महंगाई को काबू में लाने के लिए जरूरी इन प्रयासों को पूरा करने में केंद्र सरकार ने पहले अपनी असमर्थता जाहिर की थी।

कहां गए आश्वासन-
 सभी पहलूओं का अध्ययन इसी बात का साक्ष्य देता है कि इस बात में कोई शक नहीं है कि भ्रष्टाचार और आतंकवाद के बाद महंगाई देश के विकास में सबसे बड़ी बाधा बनी हुई है। वर्तमान में हमारे देश के लोगों को महंगाई, भ्रष्टाचार और आतंकवाद के कारण आम जीवन जीने में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। सरकार इन समस्याओं के समाधान का वादा करे, लेकिन आम-जनों को दूर-दूर तक आशा की कोई किरण नहीं दिखाई पड़ रही है। गौरतलब है कि एक तरफ जहां प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वर्ष 2011 में महंगाई को थामने के लिए दो गुने प्रयास किए जाने का आश्वासन दिया है, वहीं वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी की नजर में भी महंगाई का बढऩा बहुत ही चिंता का विषय है। साथ ही केन्द्रीय गृहमंत्री पी चिदम्बरम तो यह भी कह चुके हैं कि महंगाई का डंक, करों के डंक से भी खराब है।



महंगाई का रिकॉर्ड तोड़ आंकड़ा
1920 के दशक की एक घटना आज भी महंगाई के रिकॉडतोड़ आंकड़े का प्रतिनिधित्व करती है। जर्मनी में बर्लिन में एक आदमी होटल में गया और उसने एक कप कॉफी मांगी। दाम बताया गया 5000 मार्क (जर्मनी की पुरानी मुद्रा, लेकिन अब यूरोप के ज्यादातर देशों की मुद्रा यूरो है) लेकिन कॉफी पी कर जब तक वह बाहर निकला, एक कप कॉफी का दाम बढ़कर 8000 मार्क हो गया था। उन दिनों जर्मनी में चीजों के दाम एक घंटे में 60 प्रतिशत तक बढ़ रहे थे। यह सब पहले विश्व युद्ध के बाद हुआ था, जब जर्मनी की मुद्रा पूरी तरह ढह गई थी। मार्क के नोट की कीमत उतनी भी नहीं थी, जितनी उसके कागज की कीमत थी। सारे सिक्के बाजार से गायब हो गए थे। लोगों ने इन्हें जमा करके रख लिया था, क्योंकि सिक्के में लगी धातु की कीमत इन सिक्कों की कीमत से कहीं ज्यादा थी। सरकार ने सस्ते चीनी मिट्टी के और हर सस्ती चीज के सिक्के चला दिए। इनमें जूते का चमड़ा, कपड़ा, गत्ता, यहां तक कि पुराना अखबार का कागज भी शामिल था। महंगाई इतनी भयानक होने से सारी समस्याएं हो गई थीं। मजदूरों को बड़े बड़े बंडलों में तनख्वाह मिलती थी, जो तुरंत खर्चनी पड़ती थी वरना वह बेकार हो जाती थी। ग्राहक पहियों वाले ठेलों में ढेर सारे नोट ले जाते हुए दिखते थे। बे-हिसाब महंगाई के दौरान छोटी दुकानों को भी टोकरे में नोट रखने पड़ते थे।

Wednesday 20 July 2011

फुटबॉल में भी कहो चक दे इंडिया...

आजकल मीडिया में क्रिकेट और राजनीति के साथ भारतीय फुटबॉल टीम की विश्वकप क्वालिफाइंग मुकाबलों की खबरें भी देखी जा सकती हैं। भारतीय टीम ने हाल ही में हुए एक मैत्री मैच में कतर को मात देकर सभी फुटबॉल प्रेमियों का हौसला तो बढ़ाया है, लेकिन पूर्व कड़वे अनुभवों से कोई भी ठोस नतीजे की उम्मीद नहीं लगाई जा रही है। यह दूसरी बात है कि ठोस नतीजे के नहीं देने के कारण उपेक्षा का शिकार होने वाला भारतीय फुटबॉल अद्वितीय इतिहास का भी प्रतिनिधित्व करता है। आज की आवरण कथा भी भारतीय फुटबॉल के यादगार पहलुओं पर प्रकाश डालती है।

भारत में फुटबॉल के इतिहास पर गौर किया जाए तो यही सामने आता है कि यह आजादी के पहले भी काफी लोकप्रिय था। इस खेल को अंग्रेज भारत में लाए थे। शुरुआती फुटबॉल मैच आर्मी टीमों के बीच खेले जाते थे। जल्द ही देश में फुटबॉल क्लब बनने लगे। दिलचस्प बात यह है कि इनमें से कई क्लब फीफा जैसे मॉडर्न फुटबॉल ऑर्गनाइजेशन से भी पहले बन चुके थे। अगर मध्यप्रदेश के फुटबॉल स्तर के बारे में आज के परिपे्रक्ष्य में कहा जाए, तो बहुत से लोगों को फुटबॉल की सही जानकारी नहीं है। इसी संदर्भ में फुटबॉल कोच हारून खान कहते हंै कि गोवा और बंगाल की भांति हमारे प्रदेश में भी प्रतिभाओं का अंबार लगा हुआ है, लेकिन अधिकांश लोगों को पेशेवर फुटबॉल की जानकारी ही नहीं है। वहीं फुटबॉल कोच उस्मान खान मानते हैं कि बाईचुंग भूटिया के यूरोपीय क्लब से खेलने के अलावा भी कुछ ऐसे भी आंकड़े हैं, जो हमारे आश्चर्य को सातवें आसमान पर चढ़ाने के लिए काफी है।

पुणे एफसी बनाएगी  नया इतिहास

इंग्लिश प्रीमियर लीग (ईपीएल) में खेलने वाली ब्लैकबर्न रॉवर्स 22 जुलाई को पुणे एफसी से प्रदर्शनी मैच खेलेगी। भारतीय फुटबॉल के इतिहास में यह पहला मौका होगा, जबकि ईपीएल की कोई टीम भारतीय क्लब से मैच खेलेगी। यह मैच पुणे के बालेवाड़ी के शिव छत्रपति स्पोर्ट्स कॉम्पलेक्स में खेला जाएगा, जो पुणे एफसी को घरेलू मैदान भी है। लैंकशर का यह क्लब भारतीय उपमहाद्वीप के दौरे पर आने वाली पहली ईपीएल टीम भी होगी। साथ ही पुणे एफसी इस तरह से ईपीएल क्लब का सामना करने वाला पहला भारतीय क्लब भी बन जाएगा। पुणे एफसी के निर्देशक नंदन पिरामल ने कहा, 'भारतीय फुटबॉल प्रेमियों के लिए यह खास मुकाबला होगा और हमें बहुत खुशी है कि हमारी टीम रोवर्स के खिलाफ मैदान पर उतरेगी। हम भी इस मैच को खेलने वाली पहली भारतीय टीम बनने को लेकर उत्साहित हैं और गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। यह मैच फुटबॉल प्रेमियों के लिए स्वर्णिम अवसर होगा और वह इसे नहीं गंवाना चाहेंगे।Ó यह भी बताया गया कि ब्लैकबर्न की टीम में क्रिस सांबा, पॉल रॉबिंसन, डेविड डन, ब्रेट इमर्टन, डेविड होलेट, जैसन रॉबर्ट्स, मॉर्टन पैडरसन, माइकल सालगाडो, मार्टिन ओलसन, स्टीवन जोंजी और रियान नेल्सन जैसे खिलाड़ी हैं। पुणे एफसी अगले सत्र के लिए चुने गए अपने खिलाडिय़ों को उतारेगा और उसे भरोसा है कि उनकी टीम अच्छी चुनौती पेश करेगी।

आयुष्मान ने दिया मैनचेस्टर सिटी और चैल्सी में ट्रायल

कुछ दिनों पहले नोएडा स्टेडियम से खबर काफी जोरों पर थी कि अशोका फुटबॉल एकेडमी के खिलाड़ी आयुष्मान चतुर्वेदी ने इंग्लैंड के मैनचेस्टर सिटी और चैल्सी क्लब के लिए ट्रायल दिया। अगस्त में ट्रायल का रिजल्ट घोषित किया जाएगा। चयन होने के बाद चतुर्वेदी को इंग्लैंड के फुटबॉल  क्लब की तरफ से खेलने का मौका मिलेगा। एकेडमी के कोच अनादि बरुआ ने बताया कि अंडर-16 ग्रुप के खिलाड़ी आयुष्मान पहले भारतीय खिलाड़ी हैं, जिन्हें विश्वविख्यात मैनचेस्टर सिटी और चैल्सी क्लब के लिए ट्रायल देने का मौका मिला है। उन्होंने बताया कि आयुष्मान एकेडमी में फुटबॉल की ट्रेनिंग ले रहा है। इससे पहले वह वर्ष 2010 में अंडमान निकोबार में हुई 56वीं नेशनल स्कूल गेम्स में भी भाग ले चुका है। बता दें कि जून के अंतिम सप्ताह में इंग्लैंड में ट्रायल हुए। इसका रिजल्ट अगस्त के पहले सप्ताह में आने की उम्मीद है। गौरतलब है कि आयुष्मान के दादा अभय चतुर्वेदी ख्याति प्राप्त फुटबॉल, क्रिकेट और हॉकी के कमेंटेटर रहे हैं।

700 करोड़ का करार

कुछ समय पहले मुकेश अंबानी के एक करार ने भारतीय फुटबॉल को दौलत की बुलंदियों पर पहुंचा दिया है। मुकेश अंबानी की कंपनी रिलायंस आईएनजी ने अखिल भारतीय फुटबॉल महासंघ के साथ 15 सालों के लिए करार किया है। यह करार 700 करोड़ रुपए में हुआ। भारतीय फुटबॉल के इतिहास में इतनी मोटी रकम कभी भारतीय
फुटबॉल संघ को किसी कंपनी से नहीं मिली। इस करार के बाद मुकेश अंबानी की कंपनी को भारतीय फुटबॉल के टेलीकॉस्ट मार्केटिंग और ऑन ग्राउंड राइट्स मिले हैं। यह भी बताया गया कि  700 करोड़ रुपए की रकम फुटबॉल संघ को किश्तों में दी जाएगी।

वीएच ग्रुप ने खरीदा ब्लैकबर्न रोवर्स

इंग्लिश प्रीमियर लीग के क्लब को खरीद लेना दुनिया में भारतीय पूंजी की बढ़ती ताकत और हैसियत दोनों की निशानी है। पिछले साल की यह चर्चाएं जोरों पर रहीं कि भारत के वेंकटेश्वर हेचरिज (वीएच) ग्रुप ने ईपीएल के क्लब ब्लैकबर्न रोवर्स को खरीदने का का सौदा चार करोड़ साठ लाख पौंड यानी तकरीबन सवा तीन अरब रुपए में कर लिया है। अनुबंध के बाद सौ फीसदी मालिकाने के साथ यह कंपनी ईपीएल में क्लब रखने वाली पहली भारतीय कंपनी बन जाएगी। खास बात यह है कि ईपीएल दुनिया की सबसे महंगी लीग है और इंग्लैंड में क्लब खरीदना खेल के जरिए अपने ब्रांड के प्रचार में दिलचस्पी रखने वाले दुनिया-भर के पूंजीपतियों का सपना होता है। अतीत में मुकेश और अनिल अंबानी द्वारा भी ईपीएल क्लब खरीदने की कोशिशों की चर्चा रही है, हालांकि बाद में दोनों भाइयों ने इससे इनकार किया था। लक्ष्मी मित्तल इंग्लैंड के सेकंड डिवीजन के क्लब क्वींस पार्क रेंजर्स के मालिकों में जरूर शामिल हैं, लेकिन प्रीमियर लीग में खेलने वाला कोई क्लब पहली बार भारतीय मालिकाने में देखा जा रहा है।


आदर्श हैं बाईचुंग भूटिया
इंग्लिश फुटबॉल जगत में जो स्थान डेविड बैकहम और रुनी, फ्रांस में जिनेदिन जिदान, पुर्तगाल में क्रिस्टियानो रोनाल्डो व ब्राजील के रोनाल्डो, काका और रोनाल्डिनियो का है, वही स्थान भारतीय फुटबॉल में बाईचुंग भूटिया का है। सिक्किम के इस हीरे को निखारने में अहम योगदान कोच थुपडेन रबग्याल का रहा है। इन्हीं के देखरेख में भूटिया का खेल दिनोदिन निखरता गया। भूटिया के खेलने का यह आलम था कि उन्हें मात्र 11 वर्ष की उम्र में ही ताशी नंग्याल अकादमी (गंगटोक) की ओर से फुटबॉल की साई स्कॉलरशिप मिल गई। उन्होंने 1992 में अंडर-16 सब जूनियर में ढाका (बांग्लादेश) में हुए टूर्नामेंट में भारत का प्रतिनिधित्व किया। 16 वर्ष की उम्र में  ईस्ट बंगाल क्लब की ओर से खेलने लगे। इसके ठीक दो साल बाद ही बाईचुंग राष्ट्रीय टीम में जगह बनाने में कामयाब हो गए। वर्ष 1995 में बाईचुंग जेसीटी मिल्स की टीम में शामिल हो गए और 1997 में पहली बार नेशनल फुटबॉल लीग जिताने में भूटिया की महत्वपूर्ण भूमिका रही। काठमांडू (नेपाल) में दक्षिण एशियन फुटबॉल फेडरेशन टूर्नामेंट में शानदार प्रदर्शन की बदौलत भूटिया को 1996 में प्लेयर ऑफ द ईयर चुना गया। वहीं वर्ष 1998 व 1999 में सैफ खेलों में भारत की जीत में बाईचुंग का अहम योगदान रहा। भूटिया के इस उत्कृष्ट प्रदर्शन को सभी ने सराहा और 1999 में एशियन प्लेयर ऑफ द मंथ भी चुना गया। उसी साल भूटिया को सिक्किम पुरस्कार से और अर्जुन पुरस्कार से भी नवाजा गया। इसके अलावा बाईचुंग इंग्लैंड के सेकंड डिवीजन लीग में बरी एफसी क्लब की ओर से खेलने वाले पहले भारतीय फुटबॉलर होने का गौरव प्राप्त किया। भारत सरकार ने भी बाईचुंग के प्रदर्शन का सम्मान करते हुए उन्हें वर्ष 2008 के पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया। इतना ही नहीं घरेलू फुटबॉल को बढ़ावा देने के लिए बाईचुंग ने कुछ समय पहले पुर्तगाली कोच कालरेस क्विरोज की पुर्तगाल फुटबॉल अकादमी के साथ समझौता-पत्र पर हस्ताक्षर कर बाईचुंग भूटिया फुटबॉल स्कूल (बीबीएफएस) खोला है। बता दें कि इस स्कूल में गरीब बच्चों को मुफ्त में उत्कृष्टष्ट कोचिंग मिल सकेगी। भारतीय टीम के सुधार के मामले में बाईचुंंग का मानना है कि उत्कृष्ट कोच के अलावा टीम को ज्यादा से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय मैच खेलने पर ध्यान देना होगा।

कौन कहता है फुटबॉल में पैसा नहीं है

अगर आप यह सोचते हैं कि भारतीय पेशेवर फुटबॉल में पैसा नहीं है, तो आप गलत हो सकते हैं। इसी साल 1 जून को मोहन बागान ने नाईजीरिया के स्ट्राइकर ओडाफे ओनएका ओकोली से एक साल के लिए रिकार्ड दो करोड़ रुपए का अनुबंध किया, जो भारतीय फुटबॉल इतिहास में अब तक का सबसे बड़ा करार है। गौरतलब है कि ओडाफे आई लीग में सबसे ज्यादा पैसे कमाने वाले फुटबॉलर हैं। उनकी पूर्व टीम चर्चिल ब्रदर्स उन्हें एक साल के लिए एक करोड़ से ज्यादा राशि देती थी। मोहन बागान ने आज क्लब में इस खिलाड़ी से अनुबंध की घोषणा की। क्लब ने हालांकि इस नाईजीरियाई को दिए जाने वाली सही राशि का खुलासा नहीं किया है, लेकिन सूत्रों ने कहा कि उन्हें वेतन के रूप में 1.6 करोड़ रुपए मिलेंगे, जबकि अन्य भत्तों के रूप में उन्हें 30 से 40 लाख रुपए मिलेंगे। इतना ही नहीं दूसरे देशी-विदेशी खिलाड़ी भी भारतीय क्लबों में उच्चस्तरीय सुविधाओं के साथ नेम और फेम कमाते देखे जा सकते हैं।

काश! उस समय शूज मिल जाते...
फुटबॉल में भारत की ये दुर्दशा पहले ऐसी नहीं थी। भारत में फुटबॉल शुरुआत से लेकर वर्ष 1970 तक काफी सराहा गया। भारतीय फुटबॉल टीम विश्व की अच्छी टीमों में आती थी। इस दौरान भारत ने पहली और आखिरी बार फुटबॉल विश्व कप में भाग लिया। हालांकि, इस स्पर्धा में भारत ने एक भी मैच नहीं खेला। नंगे पैर फुटबॉल खेलने के कारण भारतीय टीम को स्पर्धा का एक भी मैच नहीं खेलने दिया गया और फुटबॉल शूज पहन कर खेलने की आदत न होने के कारण भारत ने फुटबॉल शूज पहन कर खेलने से मना कर दिया। इसके बाद वर्ष 1951 और 1962 में दो बार भारतीय टीम एशियन चैम्पियन बनी। वर्ष 1956 में भी भारतीय टीम ने ओलंपिक में अच्छा प्रदर्शन किया और चौथा स्थान हासिल किया। वर्ष 1962 के बाद भारतीय फुटबॉल टीम को खुशी का मौका अगस्त 2007 में मिला, जब टीम ने पहली बार नेहरू कप जीता। भारत में इस खेल की दुर्दशा वर्ष 1970 के बाद शुरू हुई। जिम्मेदार लोगों ने इस ओर से अपना ध्यान हटा लिया, जिसका परिणाम यह हुआ कि अन्य एशियन टीमों के मुकाबले भारतीय टीम पिछड़ती चली गई।

कौन लेगा जिम्मेदारी

भारत में फुटबॉल के नियंत्रण की जिम्मेदारी आल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन (एआईएफएफ) की है। लेकिन फुटबॉल को अपने पुराने स्तर पर लाने के लिए न ही कभी कोई योजना बनती है और अगर बनती भी है, तो उस पर अमल नहीं होता। सितम्बर 2006 में ऐसा ही एक समझौता भारत ने ब्राजील के साथ किया था, जिसके अनुसार दोनों देशों को मिलकर एक ऐसी स्कीम तैयार करना था, इसके अंतर्गत ब्राजीलियन एक्सपर्ट भारतीय खिलाडिय़ों और कोचों को फुटबॉल की बारीकियां सिखाते, लेकिन इसका असर भारतीय फुटबॉलरों पर अभी तक दिखाई नहीं दे रहा है। फुटबॉल के विकास के लिए गुजरात राज्य के कोच गोपाल काग का कहना है कि यह केवल मीडिया, प्रशासन या एसोसिएशन का काम नहीं है, बल्कि आम जनता को भी फुटबॉल के प्रचार में अपनी भागीदारी करना होगी। काग यह भी कहते हैं कि लोगों को इस बात को समझना होगा कि किसी भी परिवर्तन में समय लगता है। फुटबॉल में भारत को भी एक अच्छा स्थान बनाने में समय लगेगा। साथ ही काग इस बात को भी स्वीकारते हैं कि फुटबॉल में विकसित राज्यों से प्रेरणा लेकर अन्य राज्यों में भी नई नीतियों की आवश्यकता है।


राज्यों का फुटबॉलनामा

पश्चिम बंगाल
जहां संस्कृति है फुटबॉल

आज के कोलकाता को देश में फुटबॉल का गढ़ कहा जाए तो गलत नहीं होगा। बंगाल में फुटबॉल की शुरुआत नागेंद्र प्रसाद सर्वाधिकारी ने 1877 में की हेयर स्कूल में फुटबॉल टीम को शुरू करके की। सर्वाधिकारी को भारतीय फुटबॉल का पितामह कहा जाता है। इसके बाद यहां ढेरों फुटबॉल क्लब बने। इनमें प्रमुख हैं, मोहन बागान एथलेटिक क्लब (1889), जो बाद में नेशनल क्लब ऑफ इंडिया कहलाया। फुटबॉल बंगाल की संस्कृति का हिस्सा बन गई है। हर तबके का इंसान फुटबॉल से जुड़ा है। बॉलीवुड स्टार मिथुन चक्रवर्ती ने तो बंगाल फुटबॉल एकेडमी बनाने के लिए चंदा तक मांगा है। साथ ही यहां पूर्व भारतीय क्रिक्रेट कप्तान सौरव गांगुली को भी एक निजी क्लब की ओर से फुटबॉल खेलते देखा जा सकता है।

गोवा
ईसाई शिक्षा का हिस्सा था फुटबॉल

फुटबॉल को गोवा की सभ्यता से जोड़कर देखा जाता है। इसकी शुरुआत यहां 1883 में हुई, जब आइरिश पादरी फादर विलियम रॉबर्ट लियोंस ने इसे ईसाई शिक्षा का हिस्सा बनाया। आज गोआ पश्चिम बंगाल, केरल और नॉर्थ ईस्ट के राज्यों के साथ देश में फुटबॉल का केंद्र बन चुका है। यहां तमाम प्रतिष्ठित फुटबॉल क्लब हैं जैसे, सलगांवकर, डेंपो, चर्चिल ब्रदर्स, वॉस्को स्पोर्ट्स क्लब और स्पोर्टिंग क्लब डि गोआ आदि। इसके अलावा गोवा के कई खिलाडिय़ों ने भारत का प्रतिनिधित्व भी किया है। इनमें प्रमुख हैं, ब्रह्मानंद संखवालकर, ब्रूनो कुटिन्हो, मॉरिसिओ अफोंसो, रॉबर्टो फर्नांडिस। ये सभी भारतीय फुटबॉल टीम के कप्तान रह चुके हैं।

केरल
1890 से शुरू हुआ जूनून

केरल भी देश के उन राज्यों में से है, जहां फुटबॉल  की पूजा होती है। यहां फुटबॉल का इतिहास 1890 तक जाता है, जब महाराजा कॉलेज तिरुअनंतपुरम के केमेस्ट्री के प्रोफेसर बिशप बोएल ने युवाओं को फुटबॉल खेलने की प्रेरणा दी। 1930 के दशक में राज्य में कई फुटबॉल क्लब बने। यहां फुटबॉल का एक स्थानीय रूप सुपर सेवन्स फुटबॉल बहुत प्रचलित है। इसमें दोनों तरफ सात-सात खिलाड़ी खेलते हैं। केरल ने कई सफल और मशहूर फुटबॉल खिलाड़ी भी दिए हैं। इनमें से प्रमुख हैं आईएम. विजयन, वीपी. साथयन, एनपी. प्रदीप, के. अजयन और सुशांत मैथ्यू।

मिजोरम
फुटबॉल के जरिए होती है समाजसेवा

नॉर्थ ईस्ट के राज्यों में भी फुटबॉल काफी लोकप्रिय है। मिजोरम में यह स्थानीय लोगों का सबसे मनपसंद टाइम पास खेल भी माना जाता है। आमतौर पर फुटबॉल को पुरुषों का खेल माना जाता है, लेकिन मिजोरम में लड़कियां भी इस खेल में महारथ रखती हैं। राज्य में फुटबॉल की दीवानगी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एड्स के प्रति जागरुकता फैलाने के लिए संगठनों ने रेड रिबन फुटबॉल टूर्नामेंटों का आयोजन किया था। हाल ही में राज्य सरकार ने ऐलान किया है कि वह फुटबॉल के मैदान के लिए अमेरिका से कृत्रिम घास मंगाएगी।

मणिपुर
मशहूर है फीमेल स्टार्स

मणिपुर को फुटबॉल के मंदिरों वाला राज्य कहा जाता है। यहां फुटबॉल एक धर्म की तरह जिया जाता है। मणिपुर में भी फुटबॉल अपनी फीमेल स्टार्स की वजह से पॉपुलर है। इस छोटे से राज्य में विमिंस मणिपुर फुटबॉल फेडरेशन के 450 से भी अधिक मेंबर हैं। मणिपुर की महिला फुटबॉल टीम ने 1993, 1995, 1998, 2000, 2001, 2002, 2003, 2005 में ऑल इंडिया वुमेंस फुटबॉल चैंपियनशिप का खिताब जीता है। कुमारी देवी, लोकेशोरी देवी और सुरमाला चानू यहां की मशहूर फुटबॉल कोच रही हैं।


सिक्किम
1973 में गोवा को 10-0 से हराया

सिक्किम में भी फुटबॉल ने अपनी जड़ें उस समय जमाईं, जब यह खेल भारत में पनप रहा था। सिक्किम के बाहर पहली जीत करने वाला स्थानीय फुटबॉल क्लब था कुमार स्पोर्टिंग क्लब। यह जीत उसने 1948 में दर्ज की थी। 1973 को सिक्किम के फुटबॉल इतिहास में टर्निंग पॉइंट माना जाता है, इस साल गोवा ने इसे 10-0 से हराया था। इसके बाद 1976 में सिक्किम फुटबॉल क्लब का गठन किया गया। सिक्किम फुटबॉल तब से लगातार पनप रहा है। सिक्किम का नाम उसके मशहूर फुटबॉल प्लेयर बाईचुंग भूटिया ने भी रोशन किया है। बाईचुंग को इंडिया फुटबॉल का पहला पोस्टर बॉय कहा गया है। वह पहला भारतीय फुटबॉल  प्लेयर है, जिसने इंग्लैंड में प्रोफेशनल फुटबॉल टीम का भी प्रतिनिधित्व किया है।



अकसर लोग कहते हैं कि भारत में फुटबॉल का जूनून एकदम शून्य है, लेकिन कुछ प्रतियोगिताएं ऐसी भी हैं, जो खिलाडिय़ों के साथ दर्शकों को भी रोमांचित कर देती हैं। इनमें न केवल देशी खिलाड़ी जोर आजमाइश करते देखे जा सकते हैं, बल्कि विदेशी खिलाडिय़ों की भरमार भी देखी जा सकती है। आइए जाने इनके बारे में...


फेडरेशन कप- 1977 में शुरू हुई इस प्रतियोगिता को फेड कप के नाम से भी जाना जाता है। नॉकआऊट स्टाइल का यह टूर्नामेंट आई-लीग के बाद दूसरा स्थान रखता है। यह भी कहा जाता है कि इसी से प्रेरणा लेकर नेशनल फुटबॉल लीग (वर्तमान में आई लीग) की शुरुआत की गई। इसके विजेता को आई लीग के विजेता के साथ एएफसी चैम्पियंस लीग में प्रतिस्पर्धा करने का मौका मिलता है।
डूरंड कप- इसे 1888 में भारत के विदेश सचिव मोर्टिमर डूरंड द्वारा शिमला में शुरू किया गया था। यह मूल रूप से भारत में तैनात ब्रिटिश सैनिकों के लिए एक मनोरंजन के रूप में शुरू किया गया था। डूरंड कप में दो बार दो विश्व युद्धों के दौरान निलंबित कर दिया गया था। 1940 में इसका स्थान शिमला से नई दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गया।
संतोष ट्रॉफी- संतोष ट्राफी वार्षिक भारतीय फुटबॉल प्रतियोगिता है, जो राज्यों और सरकारी संस्थानों के मध्य खेली जाती है। इसकी विजेता  श्रेणी में सबसे ऊपर प. बंगाल का नाम देखा जा सकता है। गौरतलब है कि बंगाल के नाम 31 खिताब हैं। 
आइएफए शील्ड- आइएफए शील्ड भारतीय फुटबॉल एसोसिएशन द्वारा आयोजित एक वार्षिक फुटबॉल प्रतियोगिता है। यह भी आश्चर्यजनक तथ्य है कि यह दुनिया में चौथी सबसे पुरानी क्लब प्रतियोगिता है।
आई लीग- पेशेवर फुटबॉल को प्रोत्साहन देने के लिए 2006 में नेशनल फुटबॉल लीग को आई लीग के रूप में परिवर्तित किया गया। इसके हर सीजन में औसतन 14 क्लबों का मुकाबला देखा जा सकता है। पेशेवर खिलाडिय़ों की भरमार के कारण इसे इंग्लिश प्रीमियर लीग का छोटा रूप भी कहा जा सकता है।

Tuesday 12 July 2011

क्या पत्रकारिता सचमुच सस्ती हो गई है या कुछ और...




आपने कुछ दिनों से प्रतिष्ठित अखबार के एजेंटों को अपने घर आकर यह कहते सुना होगा, 'सर, ये फलां-फलां नया पेपर आया है। हम आपको इसे मात्र 50 रुपए की मासिक राशि पर दे देंगे और साथ ही आपको एक आकर्षक उपहार भी देंगे।' वहीं यह भी देखने में आया है कि कुछ हॉकरों ने तो अखबार मालिक की सहमति से अखबार को फ्री में बांटना भी शुरू कर दिया। फिर कुछ दिन बीतते हैं और किसी चौराहे पर आप एक बड़ा सा पोस्टर या होर्डिंग लगा हुआ देखते हैं। जिस पर लिखा होता है 'हमारा अखबार नं. वन है।'  ऐसे में सोचने वाली बात यह है कि जिस अखबार की बाजारू कीमत दो या तीन रुपए तय की गई हो, वह मात्र पचास पैसे में क्यों बिक रहा है। ऐसे में यह हमारे मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि...

क्या पत्रकारिता सचमुच सस्ती हो गई है या कुछ और...




मैंने पत्रकारिता की पढ़ाई करने से पहले कभी यह नहीं सोचा था कि एक दिन इस दलदल में कूदकर इसे साफ करूंगा। वैसे, आज प्रदेश की पत्रकारिता की हालत देखकर तो यही लगता है कि अगर अभी से शुरुआत नहीं की गई, तो आने वाला समय मीडिया के पेशे को किसी भाईगिरी या गुंडागर्दी में शामिल करने में देर नहीं करेगा। पत्रकारिता के पाठ्यक्रम से परिचित लोग इस बात को अच्छे से समझते हैं कि जैसा पुस्तकों में पढ़ा जाता है, वैसा वास्तविक पत्रकारिता में नहीं है। इसलिए अपने कुछ निजी अनुभवों को बिंदास व्यू के प्रथम संस्करण में बांट रहा हूं। वैसे भी हाल ही में 2जी स्पेक्ट्रम के मामले में यह बात खुल कर सामने आई है कि मीडिया में कितने स्तर तक भ्रष्टाचार आ चुका है।
जहां चारो ओर महंगाई का हाहाकार मचा हुआ है, वहीं अखबारों के दाम और अन्य मीडिया संसाधनों का सस्ता होना स्वाभाविक तौर पर एक प्रश्न चिह्न लगाता है कि आखिर पत्रकारिता का बीड़ा उठाने वाले यह संस्थान आम आदमी को अपना उत्पाद क्यों थोपना चाहता है। वैसे, पत्रकारिता की समझ रखने वाले इस बात को भी अच्छी तरह से जानते होंगे कि सस्तेपन का सीधा सा संबंध कहीं न कहीं पित्त पत्रकारिता से भी है।

 मैंने एक पत्रकार दोस्त से पूछा, 'तुमने प्रेस लाइन क्यों चुनी, तुम तो मैकेनिकी में मास्टर हो।'  उसने पलट के जवाब दिया, 'भइया, मैकेनिकी में तो दिन भर गाडिय़ों में सर दुखाना पड़ता है। प्रेस का धंधा अच्छा है। कुछ जुगाड़ जमाओ और महीनाभर की छुट्टी।'  वैसे, मैं भी आजकल की जुगाड़ों से भलीभांति परिचित हो गया हूं, लेकिन फिर भी मैंने उससे पूछा, 'भाई, ये जुगाड़ क्या है और ये  कैसे मिलती है।' उसने मेरी ओर आश्चर्य से देखते हुए कहा, 'अरे आप जुगाड़ के बारे में नहीं जानते, आश्चर्य है। दरअसल, आजकल अपने इलाके में कंस्ट्रक्शन का काम जोरों पर है। ठेकेदार और इंजीनियर मिलकर जमकर कालाबाजारी करते हैं। नकली सीमेंट से लेकर लेबर तक में खूब पैसा बचाते हैं। हम उनकी जांच-पड़ताल करने के बाद उनके पास जाते हैं और खबर छापने की धमकी देते हैं। डर के कारण वह इतने पैसे तो दे ही देते हैं, जिससे अपना महीना गुजर जाता है।'  अब हम ही सोचें कि अगर अपने आप को संविधान का चौथा स्तंभ कहने वाला मीडिया ऐसा होगा तो क्या होगा?

आप देख सकते है कि मीडिया की पढ़ाई में विशेषकर प्रेस कानून और नैतिकता के विषय को शामिल किया गया है, लेकिन आज के पत्रकारिता परिदृश्य को देखकर लगता है कि एक ऐसी कार्यशाला आयोजित करने की आवश्यकता है, जो नैतिकता के आईने में मीडिया का चेहरा प्रस्तुत कर सके, क्योंकि आज तकनीकी विकास तो चरम पर है, लेकिन तरक्की की भूख से पत्रकार, गुंडे-मवाली का भी रूप धर रहे हैं।  यानी आज के पत्रकारों ने नेम-फेम कमाने के चक्कर में नैतिकता और इंसानियत को ताक में रख दिया है। इसी का परिणाम है कि आज देश का यह चौथा स्तंभ गत वर्ष के घोटालों का साझेदार भी देखा गया। वहीं अगर कानून की बात करें तो आज पत्रकार ही अपराध के साए में लिप्त देखे जा सकते हैं। उनके कुकर्मों को देखकर यह कहा जा रहा है कि 'किसी को कोई काम नहीं है तो वह पत्रकार बन जाए'। अब ऐसे में हम ही सोच सकते हैं कि पत्रकारिता और वेश्यालय में क्या अंतर रह जाता है।

   वर्तमान समय को देखकर लगता है कि 'मिशनरी पत्रकारिता' या 'लोककल्याणी पत्रकारिता'  तो अब इतिहास ही बन कर रह गई है। गलाकाट प्रतिस्पद्र्धा, व्यवसायीकरण, अखबारों पर उद्योगपतियों का कब्जा, पत्रकारिता के पीछे के छिपे निहित स्वार्थ, अखबारों व पत्रिकाओं को रोब दिखाने वाला हथियार या मीडिया को माध्यम बनाकर अपने ग्रुप के लिए आर्थिक लाभ लेने, ठेके, आबकारी, खनन, मिल जैसे लाइसेंस हासिल करने जैसे वाकिए अब आम हो चले हैं। अगर हम भी इस कलयुगी पत्रकारिता का हिस्सा बन रह जाएंगे तो यह लोकतंत्र का चौथा स्तंभ भला कैसे टिकेगा। आज मीडियाकर्मी भी अपने आप को पत्रकार न समझकर न्यायाधीश समझने की भूल कर रहे हैं। मीडियाकर्मी किसी भी सरकारी या गैर सरकारी तंत्र में जाकर अपने आप को विशिष्ट और रोबीले अंदाज में पेश करते भी देखे जा सकते हैं। वास्तव में एक पत्रकार समाज सुधारक की भूमिका में नजर आए व अपनी कार्यप्रणाली को समाज के सुधारने की दिशा में ले जाए, तभी यह संभव है कि मीडिया का वास्तविक फायदा समाज व राष्ट्र को मिलेगा। 

Sunday 26 June 2011

कैसे करूं इबादत




अगर तेरा सजदा करूं तो सर कलम मेरा कलम करना,
अगर दामन तेरा थामूं तो हाथ उखाड लेना।
मैं भी सरपस्त हूं अपनी फितरत का 

गर दुआ तुझसे मांगू तो मौत बख्श देना...

मुफलिसी ए इश्क में
मैंने इमान को भुला ​दिया,
मैं तो निकला था इबादत के लिए,
खुदा ने ही मुझे भगा दिया...

जमाना रूठ जाए
तो कोई गिला नहीं,
जब खुदा ही रूठ जाए
तो इबादत किसके लिए...



Saturday 18 June 2011

Bindas view: पापा आप कहां हो...

Bindas view: father's day spcl पापा आप कहां हो...

Bindas view: पापा आप कहां हो...

Bindas view: पापा आप कहां हो...: "हमेशा मुझे फुटबॉल से मना करने वाले मेरे पापा कईं दर्शकों के साथ छिप कर मेरा मैच देखा करते थे। शायद उन्हीं की दुआएं रही की मैं नेशनल चैम्पीय..."

पापा आप कहां हो...


हमेशा मुझे फुटबॉल से मना करने वाले मेरे पापा कईं दर्शकों के साथ छिप कर मेरा मैच देखा करते थे। शायद उन्हीं की दुआएं रही की मैं नेशनल चैम्पीयन​शिप में भा​गीदारी कर पाया। हालांकि, उन्होंने मुझे कभी मैदान में जाने की इजाजत नहीं दी, लेकिन जब मैं सुबह—सुबह किसी कारण से प्रेक्टिस के​ लिए मैदान पर नहीं जा पाता था, तो उन्हें मां से यह कहते भी सुना था कि आज सचिन ग्राउंड में क्यों नहीं गया है? कहीं उसकी तबीयत तो खराब नहीं है? मैं जब भी स्कूल जाता तो मां से बिना बताए मुझे चोरी से एक—दो रुपए देना आज भी याद आता है। उन सिक्कों में कोई खास पुंजी नहीं थी, लेकिन उस वक्त मैं खुद को किसी करोडपति से कम नहीं आंकता था। पापा द्वारा खुद के बचपन की यादें बताना, मुझे किसी गलती पर जोर से चिल्लाना, उनके साथ मजाक मस्ती करना और ऐसी कईं यादों में न जाने क्या बात है कि उन्हें एक बार वापस लाने के लिए कुछ भी लुटाने को दिल चाहता है। 
पापा अपने बच्चे का सलाम कबूल करना...
 अगर आपके भी अपने पापा के साथ कुछ खास पल हैं, तो आप मुझसे शेयर कर सकते हैं।

Bindas view: पापा आप कहां हो...

Monday 13 June 2011

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यह मेरी पहली पोस्ट मेरे उस दोस्त को सलाम है,
जो आज इस दुनिया में नहीं है... मैं यह चाहता हूं कि मेरे दोस्त इसका शीर्षक दें।