Saturday 30 July 2011

क्यों पकड़ में नहीं बाजार?

आज सभी को 'महंगाई' के चार अक्षर किसी बवाल से कम नहीं लग रहे हैं। वैसे, इस साल के बजट से काफी उम्मीद की जा रही थी कि महंगाई से कुछ हद तक राहत मिलेगी, लेकिन हालिया बढ़ी अनाजों, रसोई गैस और अब ब्याज की दरों को देखकर लगता है कि महंगाई इतनी आसानी से हमारा पीछा नहीं छोडऩे वाली। यह लेख भी  महंगाई के कुछ ऐसे समीकरणों को प्रस्तुत करता है, जो आम आदमी की जिंदगी को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित कर रहे हैं।


भले ही मीडिया कितनी भी जागरूकता लाने का प्रयास करे, लेकिन महंगाई की मार से परेशान आम आदमी की मुश्किलें कम होने का नाम ही नहीं ले रही है। सरकार के महंगाई को थामने के लिए उठाए जा रहे कदम भी फिलहाल कारगर नजर होते नहीं दिखाई दे रहे हैं। चाहे दूध, सब्जियां हो या फिर अनाज जैसी रोजमर्रा की जरूरी वस्तुएं, सभी के लगातार बढ़ते कीमतो ने आम आदमी का जीना मुहाल कर दिया है। वैसे, शेयर बाजार की अस्थिरता के साथ अब ब्याज की मार भी हमारी जिंदगी को प्रभावित करती नजर आएगी। पिछले साल दिसम्बर में जहां बेमौसम बारिश की वजह से देश में प्याज की कीमतें बढ़कर 80 रुपए प्रति किलो तक पहुंंच गई थी और हाल ही में रसोई गैस पर 50 रुपए की बढ़ोतरी से तो हम भलीभांति परिचित हैं। दोनों ही पहलू इस बात को स्पष्ट करते है कि लंबे समय से महंगाई का भूत केंद्र सरकार की नीतियों पर भारी पड़ रहा है।


महंगाई का समीकरण-
महंगाई के समीकरण को एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। मान लो कि पुराने समय में एक बकरी 20 किलो गेहूं के बदले खरीदी जाती थी। मतलब 20 किलो गेहूं की कीमत एक बकरी है। धीरे-धीरे इस लेन-देन के लिए पैसा या मुद्रा आ गई। अब मान लो कि एक बकरी 1000 रुपए में खरीदी गई। इसका मतलब आज एक बकरी की कीमत हजार रुपए है और हजार रुपए का मूल्य एक बकरी के बराबर है। अब अगर यह माने कि बकरी की कीमत बढ़ गई और 1500 रुपए हो गई। इसके मायने यह नहीं है कि बकरी का मूल्य बढ़ गया, बल्कि यह है कि रुपए का मूल्य घट गया। अब हजार रुपए का मूल्य एक बकरी के बराबर नहीं रहा, बल्कि डेढ़ हजार रुपए का मूल्य एक बकरी के बराबर हो गया। यानी एक रुपए से अब पहले के मुकाबले कम सामान आता है। इसे रुपए का 'अवमूल्यनÓ कहते हैं, जब चीजें महंगी होती हैं तो लोग क्यों परेशान होते हैं? क्योंकि उनके पास खर्चने को रुपए सीमित ही होते हैं या थोड़े ही बढ़ते हैं, लेकिन उन रुपए से खरीदी जाने वाली चीजें कम हो जाती हैं।

क्यों बढ़ती हैं कीमतें -
कोई सरकार अगर ज्यादा नोट छापती है और बाजार में नोट बढ़ जाते हैं, लेकिन चीजें व उत्पादन उतना का उतना ही रहता है, तो जाहिर है कि देश में नोटों का मूल्य घट जाएगा। मान लो बाजार में कोई चीज उपलब्ध ही कम है, तो मांग के कारण वह चीज महंगी हो जाएगी। जब दूध का उत्पादन घट जाता है, तो दूध महंगा हो जाता है। दूसरा अगर किसी चीज के उत्पादन की लागत बढ़ जाए तो वह महंगी हो जाती है। पेट्रोल या डीजल के दाम बढ़ेंगे तो बसों और ट्रेनों के किराए भी स्वाभाविक रूप से बढ़ जाएंगे।

    कीमतों के तय होने का एक बड़ा कारण देश और समाज की व्यवस्था भी है। कोई चीज कम है तो पहले किसको मिलेगी, इसके अलग-अलग नियम है। तानाशाही व्यवस्था में ज्यादा ताकतवर लोगों को चीजें पहले मिलती हैं। जहां व्यवस्था सामाजिक कल्याण की भावना पर हो, वहां उसे दी जाएगी जिसे सबसे ज्यादा जरूरत हो। जैसे अगर अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी है, तो सबसे पहले उस मरीज को दी जाएगी, जिसकी हालत सबसे ज्यादा खराब है। इसी तरह आज की व्यवस्था भी मुक्त बाजार व्यवस्था है। इसमें चीजें उनको ही मिलेंगी, जिनके पास पैसा देने की ताकत है। इस व्यवस्था में जरूरतें पूरी करने के लिए इन्सानियत की कोई जगह नहीं। एक इंसान अगर मर भी रहा है तो भी डॉक्टरी सेवा या दवाई उसे ही मिलेगी, जो ज्यादा फीस दे सकता है।

खाद्य पदार्थ की चिंता-हाल ही में 16 जुलाई को समाप्त सप्ताह में दालों के दाम घटने से खाद्य मुद्रास्फीति घटकर 20 माह के निचले स्तर 7.33 प्रतिशत पर आ गई, लेकिन इसके बावजूद परिवारों के बजट पर आलू, प्याज, फलों और दूध के ऊंचे दामों की मार कम नहीं हुई है। थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) पर आधारित खाद्य मुद्रास्फीति इससे पूर्व सप्ताह में 7.58 प्रतिशत थी। गिरावट का कारण पिछले साल इसी अवधि के दौरान मुद्रास्फीति का ऊंचा होना (उच्च आधार प्रभाव) भी है। उस समय खाद्य मुद्रास्फीति 18.56 प्रतिशत थी। इस पर वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने कहा था, 'ये साप्ताहिक आंकड़े आधार, प्रभाव की वजह से ऊपर नीचे होते हैं। इनसे किसी निश्चित रुख का पता नहीं चलता। मुद्रास्फीतिक दबाव बना हुआ है।Ó जून में कुल मुद्रास्फीति 9.44 प्रतिशत के स्तर पर थी। दिसंबर, 2010 से यह 9 प्रतिशत से ऊपर चल रही है। भले ही समीक्षाधीन सप्ताह के दौरान दालों की कीमत एक साल पहले की तुलना में 8 प्रतिशत नीचे रही, लेकिन अन्य क्षैत्रों में महंगाई बनी हुई है।
   
    कुछ समय पहले के आंकड़ों के अनुसार सालाना आधार पर प्याज 22.66 प्रतिशत और फल 13.90 महंगा था। वहीं आलू 10.55 प्रतिशत, दूध 9.96 प्रतिशत और सब्जियां सालाना आधार पर 7.59 प्रतिशत महंगी थीं। सालाना आधार पर कुल मिलाकर सब्जियों के दाम 7.59 प्रतिशत बढ़े हैं। बता दें कि खाद्य मुद्रास्फीति के लिए नवंबर 2009 से अलग से आंकड़ा जारी किया जा रहा है। उसके बाद से खाद्य मुद्रास्फीति का न्यूनतम आंकड़ा है। प्राथमिक वस्तुओं पर दबाव बना हुआ है। 16 जुलाई को समाप्त सप्ताह में इनकी मुद्रास्फीति 10.49 प्रतिशत थी, जो इससे पिछले सप्ताह 11.13 फीसद थी।  इसी तरह गैर खाद्य वस्तुओं फाइबर, तिलहन और धातुओं की महंगाई दर 16.05 प्रतिशत थी, जो इससे पिछले सप्ताह 15.50 फीसदी पर थी। इस बीच, ईंधन और बिजली सूचकांक 12.12 प्रतिशत पर था। भोपाल की नवनियुक्त कराधान सहायक नीलम गुप्ता का  मानना है कि खाद्य मुद्रास्फीति में गिरावट की मुख्य वजह पिछले साल का प्रभाव है, लेकिन आगामी माह में यह रुख उलट सकता है। साथ ही वह सब्जियों, फलों और प्रोटीन वाले खाद्य पदार्थों के दाम बढऩे पर भी चिंता भी जताती हैं।

उपभोक्ताओं पर ब्याज दरों की मार- 
 हाल ही में भारतीय रिजर्व बैंक ने महत्वपूर्ण ब्याज दरों में उम्मीद से ज्यादा 0.50 प्रतिशत की वृद्धि कर दी है। इससे मकान, दुकान, कार और कॉरपोरेट लोन और महंगा हो सकता है। यानी इसकी सीधी मार बैंकों को नहीं, बल्कि उपभोक्ताओं पर पड़ेगी। पिछले 3 माह में आरबीआई ने तीसरी बार दरों में वृद्धि की है। गौरतलब है कि मार्च 2010 लेकर अब तक यह 11वीं बढ़ोतरी है। आरबीआई ने अपनी मौद्रिक नीति की तिमाही समीक्षा में चालू वित्त वर्ष के अंत की महंगाई दर के अपने अनुमान को भी 6 से बढ़ाकर 7 प्रतिशत कर दिया है। हालांकि, रिजर्व बैंक ने आर्थिक वृद्धि दर के 8 प्रतिशत के अनुमान में बदलाव नहीं किया है। इस आधा प्रतिशत की वृद्धि के बाद केंद्रीय बैंक द्वारा वाणिज्यिक बैंकों को नकदी की फौरी जरूरत के लिए दिए जाने वाले रेपो रेट 7.50 प्रतिशत से बढ़कर 8 प्रतिशत हो गया है। केंद्रीय बैंक द्वारा वाणिज्यिक बैंकों से ली जाने वाली उधारी के रेट यानी रिवर्स रेपो रेट भी 6.50 प्रतिशत से बढ़कर 7 प्रतिशत हो गया है। नकद आरक्षित अनुपात यानी सीआरआर को 6 प्रतिशत पर कायम रखा है। इन दरों में वृद्धि के बाद ऑटो, होम, पर्सनल और सभी तरह के लोन महंगे होने की पूरी उम्मीद है। यानी स्पष्ट है कि बढ़ती महंगाई के बीच यदि आप नया मकान खरीदने की सोच रहे हैं, तो भारी ब्याज देने के लिए तैयार हो जाएं। यही नहीं वाहन खरीदना व पर्सनल लोन लेना भी फिलहाल महंगा हो गया है। इन दरों के नीचे जाने की उम्मीदें फिलहाल अगले कुछ महीनों तक नहीं दिख रही है।

क्या है रेपो रेट- रिजर्व बैंक अन्य बैंकों को जिस दर से पैसा उधार देता है, उसे रेपो रेट कहते हैं। जब कभी बैंकों को फंड की कमी पड़ती है तो वो रिजर्व बैंक से कर्ज लेता है। रेपो रेट में बढ़ोतरी का मतलब बैंकों को रिजर्व बैंक से मिलने वाला कर्ज महंगा हो जाता है।

क्या है रिवर्स रेपो रेट- रिवर्स रेपो वह रेट है, जिस पर कोई भी कमर्शियल बैंक रिजर्व बैंक को पैसा उधार देते हैं। बैंक रिजर्व बैंक में अपना पैसा लगाना पसंद करते हैं, क्योंकि इससे उनका पैसा एक अच्छे ब्याज दर पर सुरक्षित हाथों में जमा होता है। अगर रिवर्स रेपो रेट में बढ़ोतरी की जाती है तो इससे बैंकों को ज्यादा पैसा रिजर्व बैंक में जमा करना पड़ता है।
 

इस कमरतोड़ महंगाई के बाद भी हाल ही में कई चीजों के दामों में बढ़ोतरी हुई है-
1. पिछले महीने रसोई गैस पर 50 रुपए बढ़ाए गए।
2. दूध की कीमत में दो रुपए प्रति लीटर की बढ़ोतरी की गई।
3. इस साल पेट्रोल के दाम 7 रुपए प्रति लीटर बढ़ गए हैं।
4. आरबीआई ने क्रेडिट पॉलिसी में ब्याज दरें आधी फीसदी बढ़ा दी यानी आम आदमी पर कर्ज का बोझ बढ़ाने का एक और इंतजाम।
 

नहीं मिलेगी दिसंबर तक राहत-
आम आदमी को कम से कम पांच माह तक महंगाई से राहत मिलने की उम्मीद नहीं है। सरकार ने कहा कि महंगाई की दर दिसंबर तक 9 प्रतिशत के ऊंचे स्तर पर बनी रहेगी। फिलहाल मुद्रास्फीति 9 प्रतिशत से ऊपर चल रही है। हाल ही में वित्त मंत्रालय के एक नोट में कहा गया है, 'इस साल के अंतिम महीने में ही महंगाई का आंकड़ा नीचे आने की उम्मीद है। अगस्त-दिसंबर, 2011 के दौरान महंगाई की दर कमोबेश उच्च स्तर पर बनी रहेगी।Ó जून माह में मुद्रास्फीति 9.44 प्रतिशत के स्तर पर थी, यह भारतीय रिजर्व बैंक के 5-6 प्रतिशत के संतोषजनक स्तर से कहीं ऊंची है। नोट में बताया गया कि वर्तमान में महंगाई की वजह मौसमी प्रभाव तथा कच्चे तेल और विनिर्मित उत्पादों के दामों में तेजी है। सरकार ने कहा है कि वह भारतीय रिजर्व बैंक के साथ मिलकर महंगाई को संतोषजनक स्तर पर लाने के लिए काम कर रही है। महंगाई के बोझ को झेलने के बारे में कोई परिभाषा नहीं है, हम निकट भविष्य में महंगाई की दर को 6 से 6.5 प्रतिशत के स्तर पर लाना चाहते हैं। भारतीय रिजर्व बैंक महंगाई पर अंकुश के लिए नीतिगत दरों में मार्च, 2010 के बाद से दस बार बढ़ोतरी कर चुका है। नोट में उल्लेख है कि वित्त मंत्रालय को उम्मीद है कि मार्च, 2012 तक महंगाई की दर घटकर 6 से 7 प्रतिशत के दायरे में आ जाएगी। अर्थव्यवस्था में जरूरत से ज्यादा तेजी के बारे में वित्त मंत्रालय के नोट में कहा गया है, 'हम राजकोषीय और मौद्रिक दोनों मोर्चों पर रुख कड़ा कर रहे हैं। इससे मांग पक्ष का दबाव दूर होगा।Ó इसमें कहा गया है कि आपूर्ति पक्ष के दबाव को कम करने से मुद्रास्फीतिक दबाव भी कम होगा। वित्त मंत्रालय ने हाल में डीजल, केरोसिन और एलपीजी के दामों में बढ़ोतरी को उचित ठहराते हुए कहा है कि यदि ऐसा नहीं किया जाता, तो इससे राजकोषीय घाटा और बढ़ता जिससे महंगाई की दर में इजाफा होता। भारतीय रिजर्व बैंक ने 2011-12 की अपनी मौद्रिक नीति की समीक्षा में कहा था कि महंगाई की दर चालू वित्त वर्ष की पहली छमाही में औसतन 9 प्रतिशत पर रहेगी और मार्च, 2012 तक घटकर 6 प्रतिशत पर आ जाएगी। वित्त मंत्रालय ने आगे कहा कि महंगाई के कारण में भी बदलाव आया है। पहले खाद्य मुद्रास्फीति चिंता की वजह थी। अब यह गैर खाद्य वस्तुओं की वजह से है।

भारत दुनिया का 5वां सबसे कर्जदार देश-
विश्व बैंक के ग्लोबल डेवलपमेंट फिनांस 2010 रिपोर्ट में 20 कर्जदार देशों के आंकड़ों के आधार पर भारत को दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा कर्जदार देश बताया गया है। कुछ समय पहले लोकसभा में शिव कुमार उदासी के प्रश्न के लिखित उत्तर में वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने बताया कि विश्व बैंक के ग्लोबल डेवलपमेंट फिनांस 2010 रिपोर्ट में बाह्य कर्ज के मामले में भारत को दुनिया का पांचवां सबसे कर्जदार देश बताया गया है। गौरतलब है कि इस सूची में पहले स्थान पर रूस उसके बाद चीन, तुर्की और ब्राजील हैं। उन्होंने कहा था कि सितंबर 2010 को समाप्त तिमाही में भारत का बाह्य कर्ज 1,332,195 करोड़ रुपए था, जबकि इससे पूर्व मार्च 2010 को समाप्त तिमाही में बाह्य कर्ज 1,184,998 करोड़ रुपए था।

मोदी बने आदर्श-
 कुछ समय पहले खबरें जोरों पर थी कि दिल्ली महंगाई रोकने के लिए गठित मुख्यमंत्रियों की समिति की सिफारिशों पर केंद्र भले ही अभी विचार कर रहा हो पर गुजरात सरकार ने उसे लागू कर दिया है। गुजरात, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडु के मुख्यमंत्रियों की इस समिति के अध्यक्ष स्वयं नरेंद्र मोदी ही रहे हैं। गौरतलब है कि खाद्य पदार्थों की महंगाई से चिंतित प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उपभोक्ता मामले से संबंधित इस समिति का गठन 12 अप्रैल 2010 को किया गया था। समिति ने रिपोर्ट को जनवरी 2011 में अंतिम रूप दे दिया था, पर प्रधानमंत्री को दो मार्च को सौंपी गई। वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने बजट सत्र के दौरान लोकसभा में महंगाई पर विपक्ष की ओर से दागे गए आरोपों का जवाब देते हुए मोदी की रिपोर्ट की चर्चा की थी। प्रणब मुखर्जी ने तब कहा था कि सरकार मोदी समिति की सिफारिशों का अध्ययन कर रही है, जिसे बाद में लागू करने पर विचार किया जाएगा। सूत्रों के अनुसार गुजरात में रिपोर्ट की सिफारिशों को प्रधानमंत्री को सौंपने के तुरंत बाद ही लागू करने का काम शुरू कर दिया गया था। रिपोर्ट में दी गई कुछ सिफारिशों को केंद्र द्वारा ही लागू किया जा सकता है। गुजरात सरकार ने इन सिफारिशों को छोड़ कर दूसरी सभी सिफारिशों पर अमल शुरू कर दिया है। इनमें एपीएमसी एक्ट में संशोधन, भंडारण क्षमता में बढ़ोतरी और सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार जैसे महत्वपूर्ण प्रयास शामिल हैं। गौरतलब है कि महंगाई को काबू में लाने के लिए जरूरी इन प्रयासों को पूरा करने में केंद्र सरकार ने पहले अपनी असमर्थता जाहिर की थी।

कहां गए आश्वासन-
 सभी पहलूओं का अध्ययन इसी बात का साक्ष्य देता है कि इस बात में कोई शक नहीं है कि भ्रष्टाचार और आतंकवाद के बाद महंगाई देश के विकास में सबसे बड़ी बाधा बनी हुई है। वर्तमान में हमारे देश के लोगों को महंगाई, भ्रष्टाचार और आतंकवाद के कारण आम जीवन जीने में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। सरकार इन समस्याओं के समाधान का वादा करे, लेकिन आम-जनों को दूर-दूर तक आशा की कोई किरण नहीं दिखाई पड़ रही है। गौरतलब है कि एक तरफ जहां प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वर्ष 2011 में महंगाई को थामने के लिए दो गुने प्रयास किए जाने का आश्वासन दिया है, वहीं वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी की नजर में भी महंगाई का बढऩा बहुत ही चिंता का विषय है। साथ ही केन्द्रीय गृहमंत्री पी चिदम्बरम तो यह भी कह चुके हैं कि महंगाई का डंक, करों के डंक से भी खराब है।



महंगाई का रिकॉर्ड तोड़ आंकड़ा
1920 के दशक की एक घटना आज भी महंगाई के रिकॉडतोड़ आंकड़े का प्रतिनिधित्व करती है। जर्मनी में बर्लिन में एक आदमी होटल में गया और उसने एक कप कॉफी मांगी। दाम बताया गया 5000 मार्क (जर्मनी की पुरानी मुद्रा, लेकिन अब यूरोप के ज्यादातर देशों की मुद्रा यूरो है) लेकिन कॉफी पी कर जब तक वह बाहर निकला, एक कप कॉफी का दाम बढ़कर 8000 मार्क हो गया था। उन दिनों जर्मनी में चीजों के दाम एक घंटे में 60 प्रतिशत तक बढ़ रहे थे। यह सब पहले विश्व युद्ध के बाद हुआ था, जब जर्मनी की मुद्रा पूरी तरह ढह गई थी। मार्क के नोट की कीमत उतनी भी नहीं थी, जितनी उसके कागज की कीमत थी। सारे सिक्के बाजार से गायब हो गए थे। लोगों ने इन्हें जमा करके रख लिया था, क्योंकि सिक्के में लगी धातु की कीमत इन सिक्कों की कीमत से कहीं ज्यादा थी। सरकार ने सस्ते चीनी मिट्टी के और हर सस्ती चीज के सिक्के चला दिए। इनमें जूते का चमड़ा, कपड़ा, गत्ता, यहां तक कि पुराना अखबार का कागज भी शामिल था। महंगाई इतनी भयानक होने से सारी समस्याएं हो गई थीं। मजदूरों को बड़े बड़े बंडलों में तनख्वाह मिलती थी, जो तुरंत खर्चनी पड़ती थी वरना वह बेकार हो जाती थी। ग्राहक पहियों वाले ठेलों में ढेर सारे नोट ले जाते हुए दिखते थे। बे-हिसाब महंगाई के दौरान छोटी दुकानों को भी टोकरे में नोट रखने पड़ते थे।

1 comment:

  1. tumhari ye cover story usi din padhi thi... achchi hai aur study iske liye ki gai mehnat dikhti bhi hai...

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