Tuesday 12 July 2011

क्या पत्रकारिता सचमुच सस्ती हो गई है या कुछ और...




आपने कुछ दिनों से प्रतिष्ठित अखबार के एजेंटों को अपने घर आकर यह कहते सुना होगा, 'सर, ये फलां-फलां नया पेपर आया है। हम आपको इसे मात्र 50 रुपए की मासिक राशि पर दे देंगे और साथ ही आपको एक आकर्षक उपहार भी देंगे।' वहीं यह भी देखने में आया है कि कुछ हॉकरों ने तो अखबार मालिक की सहमति से अखबार को फ्री में बांटना भी शुरू कर दिया। फिर कुछ दिन बीतते हैं और किसी चौराहे पर आप एक बड़ा सा पोस्टर या होर्डिंग लगा हुआ देखते हैं। जिस पर लिखा होता है 'हमारा अखबार नं. वन है।'  ऐसे में सोचने वाली बात यह है कि जिस अखबार की बाजारू कीमत दो या तीन रुपए तय की गई हो, वह मात्र पचास पैसे में क्यों बिक रहा है। ऐसे में यह हमारे मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि...

क्या पत्रकारिता सचमुच सस्ती हो गई है या कुछ और...




मैंने पत्रकारिता की पढ़ाई करने से पहले कभी यह नहीं सोचा था कि एक दिन इस दलदल में कूदकर इसे साफ करूंगा। वैसे, आज प्रदेश की पत्रकारिता की हालत देखकर तो यही लगता है कि अगर अभी से शुरुआत नहीं की गई, तो आने वाला समय मीडिया के पेशे को किसी भाईगिरी या गुंडागर्दी में शामिल करने में देर नहीं करेगा। पत्रकारिता के पाठ्यक्रम से परिचित लोग इस बात को अच्छे से समझते हैं कि जैसा पुस्तकों में पढ़ा जाता है, वैसा वास्तविक पत्रकारिता में नहीं है। इसलिए अपने कुछ निजी अनुभवों को बिंदास व्यू के प्रथम संस्करण में बांट रहा हूं। वैसे भी हाल ही में 2जी स्पेक्ट्रम के मामले में यह बात खुल कर सामने आई है कि मीडिया में कितने स्तर तक भ्रष्टाचार आ चुका है।
जहां चारो ओर महंगाई का हाहाकार मचा हुआ है, वहीं अखबारों के दाम और अन्य मीडिया संसाधनों का सस्ता होना स्वाभाविक तौर पर एक प्रश्न चिह्न लगाता है कि आखिर पत्रकारिता का बीड़ा उठाने वाले यह संस्थान आम आदमी को अपना उत्पाद क्यों थोपना चाहता है। वैसे, पत्रकारिता की समझ रखने वाले इस बात को भी अच्छी तरह से जानते होंगे कि सस्तेपन का सीधा सा संबंध कहीं न कहीं पित्त पत्रकारिता से भी है।

 मैंने एक पत्रकार दोस्त से पूछा, 'तुमने प्रेस लाइन क्यों चुनी, तुम तो मैकेनिकी में मास्टर हो।'  उसने पलट के जवाब दिया, 'भइया, मैकेनिकी में तो दिन भर गाडिय़ों में सर दुखाना पड़ता है। प्रेस का धंधा अच्छा है। कुछ जुगाड़ जमाओ और महीनाभर की छुट्टी।'  वैसे, मैं भी आजकल की जुगाड़ों से भलीभांति परिचित हो गया हूं, लेकिन फिर भी मैंने उससे पूछा, 'भाई, ये जुगाड़ क्या है और ये  कैसे मिलती है।' उसने मेरी ओर आश्चर्य से देखते हुए कहा, 'अरे आप जुगाड़ के बारे में नहीं जानते, आश्चर्य है। दरअसल, आजकल अपने इलाके में कंस्ट्रक्शन का काम जोरों पर है। ठेकेदार और इंजीनियर मिलकर जमकर कालाबाजारी करते हैं। नकली सीमेंट से लेकर लेबर तक में खूब पैसा बचाते हैं। हम उनकी जांच-पड़ताल करने के बाद उनके पास जाते हैं और खबर छापने की धमकी देते हैं। डर के कारण वह इतने पैसे तो दे ही देते हैं, जिससे अपना महीना गुजर जाता है।'  अब हम ही सोचें कि अगर अपने आप को संविधान का चौथा स्तंभ कहने वाला मीडिया ऐसा होगा तो क्या होगा?

आप देख सकते है कि मीडिया की पढ़ाई में विशेषकर प्रेस कानून और नैतिकता के विषय को शामिल किया गया है, लेकिन आज के पत्रकारिता परिदृश्य को देखकर लगता है कि एक ऐसी कार्यशाला आयोजित करने की आवश्यकता है, जो नैतिकता के आईने में मीडिया का चेहरा प्रस्तुत कर सके, क्योंकि आज तकनीकी विकास तो चरम पर है, लेकिन तरक्की की भूख से पत्रकार, गुंडे-मवाली का भी रूप धर रहे हैं।  यानी आज के पत्रकारों ने नेम-फेम कमाने के चक्कर में नैतिकता और इंसानियत को ताक में रख दिया है। इसी का परिणाम है कि आज देश का यह चौथा स्तंभ गत वर्ष के घोटालों का साझेदार भी देखा गया। वहीं अगर कानून की बात करें तो आज पत्रकार ही अपराध के साए में लिप्त देखे जा सकते हैं। उनके कुकर्मों को देखकर यह कहा जा रहा है कि 'किसी को कोई काम नहीं है तो वह पत्रकार बन जाए'। अब ऐसे में हम ही सोच सकते हैं कि पत्रकारिता और वेश्यालय में क्या अंतर रह जाता है।

   वर्तमान समय को देखकर लगता है कि 'मिशनरी पत्रकारिता' या 'लोककल्याणी पत्रकारिता'  तो अब इतिहास ही बन कर रह गई है। गलाकाट प्रतिस्पद्र्धा, व्यवसायीकरण, अखबारों पर उद्योगपतियों का कब्जा, पत्रकारिता के पीछे के छिपे निहित स्वार्थ, अखबारों व पत्रिकाओं को रोब दिखाने वाला हथियार या मीडिया को माध्यम बनाकर अपने ग्रुप के लिए आर्थिक लाभ लेने, ठेके, आबकारी, खनन, मिल जैसे लाइसेंस हासिल करने जैसे वाकिए अब आम हो चले हैं। अगर हम भी इस कलयुगी पत्रकारिता का हिस्सा बन रह जाएंगे तो यह लोकतंत्र का चौथा स्तंभ भला कैसे टिकेगा। आज मीडियाकर्मी भी अपने आप को पत्रकार न समझकर न्यायाधीश समझने की भूल कर रहे हैं। मीडियाकर्मी किसी भी सरकारी या गैर सरकारी तंत्र में जाकर अपने आप को विशिष्ट और रोबीले अंदाज में पेश करते भी देखे जा सकते हैं। वास्तव में एक पत्रकार समाज सुधारक की भूमिका में नजर आए व अपनी कार्यप्रणाली को समाज के सुधारने की दिशा में ले जाए, तभी यह संभव है कि मीडिया का वास्तविक फायदा समाज व राष्ट्र को मिलेगा। 

2 comments:

  1. bataane ki jarurat hai kya dost.... dekh nahi rahe ho sabkuch bik raha hai,, imaan ijjat aur mauten bhi..

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  2. wese aaj ki patrakarita ke bare me batane ki jarurat nahi he sir g lekin ye sirf isliye he ki muje hamesha ye yaad rahe ki ham b journalist he

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